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एकादशी के द‌िन चावल और चावल से बनी चीजें क्यों नहीं खानी चाह‌िए?


एकादशी को लेकर ऐसी मान्यता है क‌ि इस द‌िन चावल और चावल से बनी चीजें नहीं खानी चाह‌िए। आइये जानें यह मान्यता क्यों है?


Ekadashi ko chawal kyo nahi khana chahiye?
एकादशी व्रत का शास्‍त्रों और पुराणों में बड़ा महत्व बताया गया है। इस व्रत को लेकर कई न‌ियम और मान्यताएं भी हैं इनमें चावल नहीं खान भी शाम‌िल है। इसके पीछे धार्म‌िक कारण के साथ ही साथ वैज्ञान‌िक कारण भी बताया जाता है।

धार्मिक कारण 
धार्म‌िक दृष्ट‌ि से एकादशी के दिन चावल खाना अखाद्य पदार्थ अर्थात नहीं खाने योग्य पदार्थ खाने का फल प्रदान करता है।

पौराणिक कथा के अनुसार माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया और उनका अंश पृथ्वी में समा गया। चावल और जौ के रूप में महर्षि मेधा उत्पन्न हुए इसलिए चावल और जौ को जीव माना जाता है।

जिस दिन महर्षि मेधा का अंश पृथ्वी में समाया, उस दिन एकादशी तिथि थी। इसलिए एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित माना गया। मान्यता है कि एकादशी के दिन चावल खाना महर्षि मेधा के मांस और रक्त का सेवन करने जैसा है।

वैज्ञानिक कारण 
वैज्ञानिक तथ्य के अनुसार चावल में जल तत्व की मात्रा अधिक होती है। जल पर चन्द्रमा का प्रभाव अधिक पड़ता है। चावल खाने से शरीर में जल की मात्रा बढ़ती है इससे मन विचलित और चंचल होता है। मन के चंचल होने से व्रत के नियमों का पालन करने में बाधा आती है। एकादशी व्रत में मन का निग्रह और सात्विक भाव का पालन अति आवश्यक होता है इसलिए एकादशी के दिन चावल से बनी चीजें खाना वर्जित कहा गया है।

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दुनिया के 5 सबसे पुराने शहर (Top 5 Oldest Cities Of World)

हम सब जानते है की वाराणसी, भारत का सबसे पुराना शहर है। लेकिन अगर बात पूरी दुनिया की हो तो इससे भी प्राचीन कई शहर मौजूद हैं। इन शहरों में हजारों साल पहले ही लोगों की बसाहट शुरू हो गई थी। आज हम आपको दुनियाभर के 5 सबसे पुराने शहरों के बारे में बताने जा रहे हैं।


1. जेरिको, फलस्तीन (Jericho, Philistine)
1. जेरिको, फलस्तीन (Jericho, Philistine)

फलस्तीन के जेरिको को दुनिया का सबसे प्राचीन शहर होने का गौरव प्राप्त है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, इस शहर में 11000 साल पहले से ही लोगों ने रहना शुरू कर दिया था। जॉर्डन नदी के किनारे पर स्थित इस प्राचीन शहर के स्थान पर वर्तमान में 20 हजार की आबादी वाला एक कस्बा है। समय-समय पर ये अलग-अलग देशों के अधीन रहा। 1949-1967 तक ये शहर जहां जॉर्डन के कब्जे में था, वहीं 1967 के बाद से इस पर इजरायल का कब्जा हो गया। हालांकि, 1994 के बाद से फलस्तीन के अधीन है। हिब्रू बाइबिल में जेरिको सिटी ऑफ पाम ट्रीज के रूप में वर्णित किया गया है। बता दें कि हिब्रू यहुदियों की धर्मभाषा है और बाइबिल का पुराना नियम (ओल्ड टेस्टामेंट) इसी में लिखा गया था।

2. बाइब्लोस, लेबनान (Byblo, Lebanon)
2. बाइब्लोस, लेबनान (Byblo, Lebanon)


लेबनान का बाइब्लोस दुनिया का दूसरा सबसे प्राचीन शहर है। पहले इसे जिबल के रूप में जाना जाता था। ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर माना जाता है कि ये 7000 साल प्राचीन शहर है। वर्तमान में ये शहर लेबनान के प्रमुख टूरिस्ट अट्रैक्शन में से एक है। यहां पर लोग प्राचीन मंदिरों, कैसल और सेंट जॉन बैपटिस्ट चर्च देखने जाते हैं। इनमें से ज्यादातर निर्माण कार्य 12वीं सदी में हुए थे।

3. एलेप्पो, सीरिया (Aleppo, Siriya)
3. एलेप्पो, सीरिया (Aleppo, Siriya)

दुनिया के तीसरे सबसे प्राचीन शहर के रूप में एलेप्पो को जाना जाता है। 6300 साल पहले इस शहर की मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं। ये सीरिया का दूसरा सबसे बड़ा नगर है, जो उत्तर-पश्चिम में भूमध्य सागर के तट से थोड़ी दूरी पर बसा है। ये शहर प्राचीन काल से एशिया और यूरोप के बीच व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है।

4. दमासकस, सीरिया (Damascus, Syria)
4. दमासकस, सीरिया (Damascus, Syria)

सीरिया का दमासकस भी तीसरे सबसे प्राचीन शहर में शुमार किया जाता है। 6300 साल पहले ये शहर भी अस्तित्व में था। दमासकस का इतिहास जितना प्रसिद्ध रहा है, यह शहर आज भी उतना ही महत्व रखता है। यहां आज भी कई ऐसी जगहें हैं जो पर्यटकों को आकर्षित करती हैं।

5. सुसा, ईरान (Susa, Iran)
5. सुसा, ईरान (Susa, Iran)

6,200 साल पहले अस्तित्व में आया यह शहर पांचवां सबसे पुराना शहर है। यह शहर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए काफी प्रसिद्ध है। मौजूदा समय में सुसा की जनसंख्या 65,000 है।

'मॉर्निंग ग्लोरी क्लाउड'- धरती के करीब बनते हैं यह अजीबोगरीब बादल, कारण है अनजान

ऑस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड प्रांत के कारपेन्ट्रिया की खाड़ी में मौसम से जुड़ी ऐसी अजीबोगरीब घटना होती है, जिसके कारण का आज तक पता नहीं चल सका। हालांकि, माना जाता है कि केप यॉर्क पेनिनसुला में जमीन और समुद्र की खास आकृति इन विचित्र बादलों के बनने में अहम भूमिका निभाती है।



The Morning Glory Clouds Of Australia
नॉर्थ क्वींसलैंड के बर्केट टाउन में धरती के नजदीक विचित्र बादल बरसात शुरू होने से पहले सितंबर के अंत में और नवंबर की शुरुआत में तैयार होते हैं। इन्हें 'मॉर्निंग ग्लोरी क्लाउड' कहते हैं। धरती से करीब 100 से 200 मीटर की ऊंचाई पर लंबी पतली धारियों के आकार में अजीबोगरीब बादल बनते हैं। ये बादल 1000 किमी तक लंबे और 2 किमी ऊंचे होते हैं। ग्लाइडर्स के पायलेट्स को ऐसे बादल खूब आकर्षित करते हैं।

The Morning Glory Clouds Of Australia
The Morning Glory Clouds Of Australia
The Morning Glory Clouds Of Australia Hindi

मॉर्निंग ग्लोरी बादल अक्सर खतरनाक विक्षोभ के साथ आते हैं, जब अचानक हवा आवाज करती है, निचले स्तर की हवा तेज होती है और सतह पर दबाव तेज होता है। बादल के सामने की ओर तेज हवा बहती है। बादलों के पीछे जब हवा होती है ये उमड़ने लगते हैं। सतह पर बादल 60 किमी प्रति घंटे की स्पीड से हवा के साथ उड़ने लगते हैं। इससे बूंदा-बांदी और बिजली की गर्जना भी हो सकती है।
The Morning Glory Clouds Of Australia Hindi

The Morning Glory Clouds Of Australia Hindi

The Morning Glory Clouds Of Australia Hindi

'मॉर्निंग ग्लोरी क्लाउड' अमेरिका, इंग्लिश चैनल, म्युनिख, बर्लिन, पूर्वोत्तर रूस और ऑस्ट्रेलिया के मैरीटाइम क्षेत्र में भी कभी-कभार बनते हैं। लेकिन ऑस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड प्रांत के कारपेन्ट्रिया की खाड़ी में नियमित रूप से ऐसे बदल बनते हैं।

ये है विदेशों में स्तिथ 10 प्रसिद्ध और भव्य शिव मंदिर


भारतीय संस्कृति के साथ देवी-देवताओं के मंदिर भी दुनियाभर में हैं। अधिकतर देशों में भगवान शिव के मंदिर पाए जाते हैं। कुछ मंदिर ऐसे हैं जो उन देशों के लिए पर्यटन का बड़ा केंद्र भी बन गए हैं। विदेशों में भगवान शिव के कई मंदिर तो ऐसे भी हैं, जिनमें भारतीय भक्त कम विदेशी ज्यादा हैं। आइए, आज आपको भगवान शिव के ऐसे ही कुछ विदेशों में बने भव्य मंदिरों के बारे में बताते हैं....

1. शिवा हिन्दू मंदिर-जुईदोस्त, एम्स्टर्डम (Shiva Hindu Temple- Zuidoost Amsterdam)
(Shiva hindu temple- Zuidoost Amsterdam)
यह मंदिर लगभग 4,000 वर्ग मीटर को क्षेत्र में फैला हुआ है। इस मंदिर के दरवाजे भक्तों के लिए जून 2011 को खोले गए थे। इस मंदिर में भगवान शिव के साथ-साथ भगवान गणेश, देवी दुर्गा, भगवान हनुमान की भी पूजा की जाती है। यहां पर भगवान शिव पंचमुखी शिवलिंग के रूप में है।

2. अरुल्मिगु श्रीराजा कलिअम्मन मंदिर- जोहोर बरु, मलेशिया (Arulmigu Sri Rajakaliamman Temple- Johor Bahru, Malaysia)
Arulmigu Sri Rajakaliamman Temple- Johor Bahru, Malaysia

कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण वर्ष 1922 के आस-पास किया गया था। यह मंदिर जोहोर बरु के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। जिस भूमि पर यह मंदिर बना हुआ है, वह भूमि जोहोर बरु के सुल्तान द्वारा भेंट के रूप में भारतीयों को प्रदान की गई थी। कुछ समय पहले तक यह मंदिर बहुत ही छोटा था, लेकिन आज यह एक भव्य मंदिर बन चुका है। मंदिर के गर्भ गृह में लगभग 3,00,000 मोतियों को दीवार पर चिपकाकर सजावट की गई है।

3 . मुन्नेस्वरम मंदिर- मुन्नेस्वरम, श्रीलंका (Munneswaram temple- Munneswaram Sri lanka)
Munneswaram temple- Munneswaram Sri lanka
इस मंदिर के इतिहास को रामायण काल से जोड़ा जाता है। मान्यताओं के अनुसार, रावण का वध करने के बाद भगवान राम ने इसी जगह पर भगवान शिव की आराधना की थी। इस मंदिर परिसर में पांच मंदिर हैं, जिनमें से सबसे बड़ा और सुंदर मंदिर भगवान शिव का ही है। कहा जाता है कि पुर्तगालियों ने दो बार इस मंदिर पर हमला कर नुकसान पहुंचाने की कोशिश की थी।

4. शिवा टैम्पल-  ज़्यूरिख़, स्विट्ज़रलैंड (Shiva temple- Zurich, Switzerland)   
Shiva temple- Zurich, Switzerland
यह एक छोटा लेकिन सुंदर शिव मंदिर है। यहां के गर्भ गृह में शिवलिंग के पीछे भगवान शिव की नटराज स्वरूप में और देवी पार्वती की शक्ति से रूप में मूर्तियां स्थित है। इस मंदिर में भगवान शिव से जुड़े हुए सभी त्योहार बहुत ही धूम-धाम से मनाए जाते हैं।

5. कटासराज मंदिर- चकवाल, पाकिस्तान (Katasraj Temple Chakwal Pakistan)
Katasraj Temple Chakwal Pakistan
कटासराज मंदिर पाकिस्तान के चकवाल गांव से लगभग 40 कि.मी. की दूरी पर कटस में एक पहाड़ी पर है। कहा जाता है कि यह मंदिर महाभारत काल (त्रेतायुग) में भी था। इस मंदिर से जुड़ी पांडवों की कई कथाएं प्रसिद्ध हैं। मान्यताओं के अनुसार, कटासराज मंदिर का कटाक्ष कुंड भगवान शिव के आंसुओं से बना है। इस कुंड के निर्माण के पीछे एक कथा है। कहा जाता है कि जब देवी सती की मृत्यु हो गई, तब भगवान शिव उन के दुःख में इतना रोए की उनके आंसुओं से दो कुंड बन गए। जिसमें से एक कुंड राजस्थान के पुष्कर नामक तीर्थ पर है और दूसरा यहां कटासराज मंदिर में।

6. शिवा-विष्णु मंदिर- मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया (Shiva Vishnu Temple-Melbourne, Australia)
Shiva Vishnu Temple-Melbourne, Australia
भगवान शिव और विष्णु को समर्पित इस मंदिर का निर्माण लगभग 1987 के आस-पास किया गया था। मंदिर के उद्घाटन कांचीपुरम और श्रीलंका से दस पुजारियों ने पूजा करके किया था। इस मंदिर की वास्तुकला हिन्दू और ऑस्ट्रेलियाई परंपराओं का अच्छा उदाहरण है। मंदिर परिसर के अंदर भगवान शिव और विष्णु के साथ-साथ अन्य हिंदू देवी-देवताओं की भी पूजा-अर्चना की जाती है।

7. शिवा मंदिर- ऑकलैंड, न्यूजीलैंड (Shiva Temple- Oakland, New zealand)
Shiva Temple- Oakland, New zealand
न्यूजीलैंड के इस मंदिर की स्थापना का मुख्य कारण लोगों के बीच हिंदू धर्म के प्रति आस्था और विश्वार बढ़ाना था। इस मंदिर के निर्माण के बाद 2004 में यह मंदिर आम भक्तों के लिए खोला गया था। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी शिवेंद्र महाराज और यज्ञ बाबा के मार्गदर्शन में हिन्दू शास्त्रों के अनुसार किया गया था। इस मंदिर में भगवान शिव नवदेश्वर शिवलिंग के रूप में है।

8. शिवा विष्णु मंदिर- लिवेरमोरे, कैलिफोर्निया (Shiva Vishnu Temple- Livermore California)
Shiva Vishnu Temple- Livermore California
यह मंदिर इस क्षेत्र के हिंदू मंदिरों में से सबसे बड़ा मंदिर कहा जाता है। वास्तुकला की दृष्टि से यह मंदिर उत्तर भारत और दक्षिण भारत की कला का सुंदर मिश्रण है। मंदिर में भगवान शिव के साथ-साथ भगवान गणेश, देवी दुर्गा, भगवान अय्यप्पा, देवी लक्ष्मी आदि की भी पूजा की जाती है। मंदिर की अधिकांश मूर्तियों 1985 में तमिलनाडु सरकार द्वारा दान की गई थी।

9. पशुपतिनाथ मंदिर- काठमांडू, नेपाल (Pashupatinath Temple-Kkathmandu, Nepal)
Pashupatinath Temple-Kkathmandu, Nepal
पशुपतिनाथ का मतलब होता है संसार के समस्त जीवों के भगवान। मान्यताओं के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण लगभग 11वीं सदी में किया गया था। दीमक की वजह से मंदिर को बहुत नुकसान हुआ, जिसकी कारण लगभग 17वीं सदी में इसका पुनर्निर्माण किया गया। मंदिर में भगवान शिव की एक चार मुंह वाली मूर्ति है। इस मंदिर में भगवान शिव की मूर्ति तक पहुंचने के चार दरवाजे बने हुए हैं। वे चारों दरवाजे चांदी के हैं। यह मंदिर हिंदू और नेपाली वास्तुकला का एक अच्छा मिश्रण है।

10. प्रम्बानन मंदिर- जावा, इंडोनेशिया (Prambanan Temple- Java Indonesia)
Prambanan Temple- Java Indonesia
हिंदू संस्कृति और देवी-देवताओं को समर्पित एक बहुत सुंदर और प्राचीन मंदिर इंडोनेशिया के जावा नाम की जगह पर है। 10वीं शताब्दी में बना यह मंदिर प्रम्बानन मंदिर के नाम से जाना जाता है। प्रम्बानन मंदिर शहर से लगभग 17 कि.मी. की दूरी पर है।

Thursday

नागा साधु - सम्पूर्ण जानकारी और इतिहास (Naga Sadhu - Complete Information and History)


सभी साधुओं में नागा साधुओं को सबसे ज्यादा हैरत और अचरज से देखा जाता है।  यह आम जनता के बीच एक कौतुहल का विषय होते है।  यदि आप यह सोचते है की नागा साधु बनना बड़ा आसान है तो यह आपकी गलत सोच है। नागा साधुओं की ट्रेनिंग सेना के कमांडों की ट्रेनिंग से भी ज्यादा कठिन होती है, उन्हें दीक्षा लेने से पूर्व खुद का पिंड दान और श्राद्ध तर्पण करना पड़ता है।  पुराने समय में अखाड़ों में नाग साधुओं को मठो की रक्षा के लिए एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा की मठों और मंदिरों की रक्षा के लिए इतिहास में नाग साधुओं ने कई लड़ाइयां भी लड़ी है।  आज इस लेख में हम आपको नागा साधुओं के बारे में उनके इतिहास से लेकर उनकी दीक्षा तक सब-कुछ विस्तारपूर्वक बताएंगे।


नाग साधुओं के नियम :- 

वर्त्तमान में भारत में नागा साधुओं के कई प्रमुख अखाड़े है।  वैसे तो हर अखाड़े में दीक्षा के कुछ अपने नियम होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते हैं, जो सभी दशनामी अखाड़ों में एक जैसे होते हैं।

1- ब्रह्मचर्य का पालन- कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लंबे समय ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ  दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। अचानक किसी को दीक्षा नहीं दी जाती। पहले यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।

2- सेवा कार्य- ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना भी आवश्यक है। यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। ऐसे में कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं।

3- खुद का पिंडदान और श्राद्ध- दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है। इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।

4- वस्त्रों का त्याग- नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुए वस्त्र नागा साधु धारण नहीं कर सकते। नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ  भस्म लगाने की अनुमति होती है। भस्म का ही श्रंगार किया जाता है। 

5- भस्म और रुद्राक्ष- नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है। नागा साधु को अपने सारे बालों का त्याग करना होता है। वह सिर पर शिखा भी नहीं रख सकता या फिर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है। 

6- एक समय भोजन- नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। जो खाना मिले, उसमें पसंद-नापसंद को नजर अंदाज करके प्रेमपूर्वक ग्रहण करना होता है।

7- केवल पृथ्वी पर ही सोना- नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। यहां तक कि नागा साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है।

8- मंत्र में आस्था- दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है।

9- अन्य नियम- बस्ती से बाहर निवास करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं।

नागा साधु बनने की प्रक्रिया :-

नाग साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए। नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। उनको आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं। जानिए कौन सी प्रक्रियाओं से एक नागा को गुजरना होता है-

तहकीकात- जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है।


महापुरुष- अगर व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं।

अवधूत- महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं। इसके लिए अखाड़ा परिषद की रसीद भी कटती है। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं। ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।

लिंग भंग- इस प्रक्रिया के लिए उन्हें 24 घंटे नागा रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाए-पीए खड़ा होना पड़ता है। इस दौरान उनके कंधे पर एक दंड और हाथों में मिट्टी का बर्तन होता है। इस दौरान अखाड़े के पहरेदार उन पर नजर रखे होते हैं। इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है।

नागाओं के पद और अधिकार- नागा साधुओं के कई पद होते हैं। एक बार नागा साधु बनने के बाद उसके पद और अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। नागा साधु के बाद महंत, श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, पीर महंत, दिगंबरश्री, महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे पदों तक जा सकता है।

महिलाएं भी बनती है नाग साधू :-

वर्तमान में कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधू की दीक्षा दी जाती है। इनमे विदेशी महिलाओं की संख्या भी काफी है। वैसे तो महिला नागा साधू और पुरुष नाग साधू के नियम कायदे समान ही है। फर्क केवल इतना ही है की महिला नागा साधू को एक पिला वस्त्र लपेट केर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर  स्नान करना पड़ता है।  नग्न स्नान की अनुमति नहीं है, यहाँ तक की कुम्भ मेले में भी नहीं।

अजब-गजब है नागाओं का श्रंगार :-

श्रंगार सिर्फ  महिलाओं को ही प्रिय नहीं होता, नागाओं को भी सजना-संवरना अच्छा लगता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है। उन्हें भी अपने लुक और अपनी स्टाइल की उतनी ही फिक्र होती है जितनी आम आदमी को। नागा साधु प्रेमानंद गिरि के मुताबिक नागाओं के भी अपने विशेष श्रंगार साधन हैं। ये आम दुनिया से अलग हैं, लेकिन नागाओं को प्रिय हैं। जानिए नागा साधु कैसे अपना श्रंगार करते हैं-  

भस्म- नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। भगवान शिव के औघड़ रूप में भस्म रमाना सभी जानते हैं। ऐसे ही शैव संप्रदाय के साधु भी अपने आराध्य की प्रिय भस्म को अपने शरीर पर लगाते हैं। रोजाना सुबह स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैंं। यह भस्म भी ताजी होती है। भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है।

फूल- कईं नागा साधु नियमित रूप से फूलों की मालाएं धारण करते हैं। इसमें गेंदे के फूल सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं। इसके पीछे कारण है गेंदे के फूलों का अधिक समय तक ताजे बना रहना। नागा साधु गले में, हाथों पर और विशेषतौर से अपनी जटाओं में फूल लगाते हैं। हालांकि कई साधु अपने आप को फूलों से बचाते भी हैं। यह निजी पसंद और विश्वास का मामला है। 

तिलक- नागा साधु सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं। यह पहचान और शक्ति दोनों का प्रतीक है। रोज तिलक एक जैसा लगे, इस बात को लेकर नागा साधु बहुत सावधान रहते हैं। वे कभी अपने तिलक की शैली को बदलते नहीं है। तिलक लगाने में इतनी बारीकी से काम करते हैं कि अच्छे-अच्छे मेकअप मैन मात खा जाएं। 

रुद्राक्ष- भस्म ही की तरह नागाओं को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। कहा जाता है रुद्राक्ष भगवान शिव के आंसुओं से उत्पन्न हुए हैं। यह साक्षात भगवान शिव के प्रतीक हैं। इस कारण लगभग सभी शैव साधु रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। ये मालाएं साधारण नहीं होतीं। इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है। ये मालाएं नागाओं के लिए आभा मंडल जैसा वातावरण पैदा करती हैं। कहते हैं कि अगर कोई नागा साधु किसी पर खुश होकर अपनी माला उसे दे दे तो उस व्यक्ति के वारे-न्यारे हो जाते हैं।

लंगोट- आमतौर पर नागा साधु निर्वस्त्र ही होते हैं, लेकिन कई नागा साधु लंगोट धारण भी करते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे भक्तों के उनके पास आने में कोई झिझक ना रहे। कई साधु हठयोग के तहत भी लंगोट धारण करते हैं- जैसे लोहे की लंगोट, चांदी की लंगोट, लकड़ी की लंगोट। यह भी एक तप की तरह होता है।

हथियार- नागाओं को सिर्फ  साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं। अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं। ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण तो हैं ही, साथ ही इनके लुक का भी हिस्सा हैं।

चिमटा - नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है। धुनि रमाने में सबसे ज्यादा काम चिमटे का ही पड़ता है। चिमटा हथियार भी है और औजार भी। ये नागाओं के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा होता है। ऐसा उल्लेख भी कई जगह मिलता है कि कई साधु चिमटे से ही अपने भक्तों को आशीर्वाद भी देते थे। महाराज का चिमटा लग जाए तो नैया पार हो जाए।

रत्न- 
कईं नागा साधु रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। महंगे रत्न जैसे मूंगा, पुखराज, माणिक आदि रत्नों की मालाएं धारण करने वाले नागा कम ही होते हैं। उन्हें धन से मोह नहीं होता, लेकिन ये रत्न उनके श्रंगार का आवश्यक हिस्सा होते हैं।

जटा- जटाएं भी नागा साधुओं की सबसे बड़ी पहचान होती हैं। मोटी-मोटी जटाओं की देख-रेख भी उतने ही जतन से की जाती है। काली मिट्टी से उन्हें धोया जाता है। सूर्य की रोशनी में सुखाया जाता है। अपनी जटाओं के नागा सजाते भी हैं। कुछ फूलों से, कुछ रुद्राक्षों से तो कुछ अन्य मोतियों की मालाओं से जटाओं का श्रंगार करते हैं।

दाढ़ी- जटा की तरह दाढ़ी भी नागा साधुओं की पहचान होती है। इसकी देखरेख भी जटाओं की तरह ही होती है। नागा साधु अपनी दाढ़ी को भी पूरे जतन से साफ रखते हैं।

पोषाक चर्म- जिस तरह भगवान शिव बाघंबर यानी शेर की खाल को वस्त्र के रूप में पहनते हैं, वैसे ही कई नागा साधु जानवरों की खाल पहनते हैं- जैसे हिरण या शेर। हालांकि शिकार और पशु खाल पर लगे कड़े कानूनों के कारण अब पशुओं की खाल मिलना मुश्किल होती है, फिर भी कई साधुओं के पास जानवरों की खाल देखी जा सकती है।

नाग साधुओं का इतिहास :-

भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकर का जन्म ८वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे तमाम आक्रमणकारी यहाँ आ रहे थे। कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए, लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। यह थीं गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ। इसके अलावा आदिगुरू ने मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की।

आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें 40 हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।

नागा साधुओं के प्रमुख अखाड़े :-

भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:-

1. श्री निरंजनी अखाड़ा:- यह अखाड़ा 826 ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकस्वामी हैं। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।

2. श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1145 में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए रुक जाती हैं।

3. श्री महानिर्वाण अखाड़ा:- यह अखाड़ा 681 ईस्वी में स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि 1260 में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में 22 हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।

4. श्री अटल अखाड़ा:- यह अखाड़ा 569 ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।

5. श्री आह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा 646 में स्थापित हुआ और 1603 में पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।

6. श्री आनंद अखाड़ा:- यह अखाड़ा 855 ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।

7.  श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।

8.श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी 866 में अहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।

9. श्री वैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी 1595 में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। 1848 तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता था।  परंतु 1848 में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए। श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। 1932 से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी यह स्नान नासिक में ही होता है।

10. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:-  इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।

11. श्री उदासीन नया अखाड़ा:- इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयागए हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।

12. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1784 में स्थापित हुआ। 1784 में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकी स्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनमें सांप्रदायिक साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।

13. निर्मोही अखाड़ा:- निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई जाती थी।

ये है भगवान भैरव के 8 रूप, जानिए किसकी पूजा से मिलता है कौन सा फल


भगवान भैरव को भगवान शिव का ही एक रूप मान जाता है, इनकी पूजा-अर्चना करने का विशेष महत्व माना जाता है। भगवान भैरव को कई रूपों में पूजा जाता है। भगवान भैरव के मुख्य 8 रूप माने जाते हैं। उन रूपों की पूजा करने से भगवान अपने सभी भक्तों की रक्षा करते हैं और उन्हें अलग-अलग फल प्रदान करते हैं।
कैसे हैं भैरव के ये 8 रूप-

1. क्रोध भैरव (Krodh Bhairav)
1. क्रोध भैरव (Krodh Bhairav)
क्रोध भैरव गहरे नीले रंग के शरीर वाले हैं। उनकी तीन आंखें हैं और सभी आखों में। भगवान भैरव के इस रूप का वाहन गरुड़ हैं और ये दक्षिण-पश्चिम दिशा के स्वामी माने जाते हैं। क्रोध भैरव की पूजा-अर्चना करने से सभी परेशानियों और बुरे वक्त से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।

2. कपाल भैरव (Kapal Bhairav)
2. कपाल भैरव (Kapal Bhairav)
इस रूप में भगवान का शरीर चमकीला है और इस रूप में भगवान की सवारी हाथी है। भगवान भैरव के इस रूप की पूजा-अर्चना करने से कानूनी कारवाइयां बंद हो जाती हैं। अटके हुए काम पूरे होते हैं और सभी कामों में सफलता मिलती है। कपाल भैरव अपने एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे में तलवार, तीसरे में शस्त्र और चौथे में एक पात्र पकड़े हुए हैं।

3. असितांग भैरव (Asitanga Bhairav)
3. असितांग भैरव (Asitanga Bhairav)
असितांग भैरव का रूप काला है। उन्होने गले में सफेद कपालो की माला पहन रखी है और हाथ में भी एक कपाल धारण किए हुए हैं। तीन आंखों वाले असितांग भैरव की सवारी हंस है। भगवान भैरव के इस रूप की पूजा-अर्चना करने से मनुष्य में कलात्मक क्षमताएं बढ़ती हैं।

4. चंदा भैरव (Chanda Bhairav)
4. चंदा भैरव (Chanda Bhairav)
इस रूप में भगवान का रंग सफेद है और वे मोर की सवारी किए हुए हैं। भगवान की तीन आंखें हैं और एक हाथ में तलवार और दूसरे में एक पात्र, तीसरे हाथ में तीर और चौथे हाथ में धनुष लिए हुए हैं। चंद भैरव की पूजा करने से दुश्मनों पर विजय मिलती है और हर बुरी परिस्थिति से लड़ने की क्षमता आती है।

5. गुरु भैरव (Guru Bhairav)
5. गुरु भैरव (Guru Bhairav)
गुरु भैरव हाथ में कपाल, कुल्हाडी, एक पात्र और तलवार पकड़े हुए हैं। यह भगवान का नग्न रूप है और इस रूप में भगवान की सवारी बैल है। गुरु भैरव के शरीर पर सांप लिपटा हुआ है। उनके तीन हाथों में शस्त्र और एक हाथ में पात्र पकड़े हुए हैं। गुरु भैरव की पूजा करने से अच्छी विद्या और ज्ञान की प्राप्ति होती है।

6. संहार भैरव (Samhara Bhairava)
6. संहार भैरव (Samhara Bhairava)
संहार भैरव का रूप बहुत ही अनोखा है। संहार भैरव नग्न रूप में हैं, उनका शरीर लाल रंग का है और उनके सिर पर कपाल स्थापित है, वह भी लाल रंग का है। इनकी 3 आंखें हैं और उनका वाहन कुत्ता है। संहार भैरव की आठ भुजाएं हैं और उनके शरीर पर सांप लिपटा हुआ है। इसकी पूजा करने से मनुष्य के सभी पाप खत्म हो जाते हैं।

7. उन्मत्त भैरव (Unmatta Bhairav)
7. उन्मत्त भैरव (Unmatta Bhairav)
उन्मत्त भैरव भगवान के शांत स्वभाव का प्रतीक है। उन्मत्त भैरव की पूजा-अर्चना करने से मनुष्य के मन की सारी नकारात्मकता और सारी बुराइयां खत्म हो जाती है। भैरव के इस रूप का स्वरूप भी शांत और सुखद है। उन्मत्त भैरव के शरीर का रंग हल्का पीला है और उनका वाहन घोड़ा है।

8. भीषण भैरव (Bhishana Bhairava)
8. भीषण भैरव (Bhishana Bhairava)
भीषण भैरव की पूजा-करने से बुरी आत्माओं और भूतों से छुटकारा मिलता है। भीषण भैरव अपने एक हाथ में कमल, दूसरे में त्रिशूल, तीसरे में तलवार और चौंथे में एक पात्र पकड़े हुए हैं। भीषण भैरव का वाहन शेर है।

भगवान के सामने दीप प्रज्वलित क्योँ किया जाता है और इसका अध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व क्या है?


भगवान के सामने दीप प्रज्वलित क्योँ किया जाता है और इसका अध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व क्या है? उत्तर :- दीपक या दीया वह पात्र है, जिसमें सूत की बाती और तेल या घी रख कर ज्योति प्रज्वलित की जाती है। पारंपरिक दीया मिट्टी का होता है, लेकिन धातु के दीये भी प्रचलन में हैं। ज्योति अग्नि और उजाले का प्रतीक दीपक कितना प्राचीन है। इसके विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। गुफाओं में भी यह मनुष्य के साथ था। कुछ बड़ी अंधेरी गुफ़ाओं में इतनी सुन्दर चित्रकारी मिलती है, जिसे बिना दीपक के बनाना सम्भव नहीं था। भारत में दीये का इतिहास प्रामाणिक रूप से 5000 वर्षों से भी ज्यादा पुराना हैं। अग्नि का प्राचीनकाल से ही हर धर्म में महत्व है। वेदों में अग्नि को प्रत्यक्ष देवतास्वरूप माना गया है।इसलिए हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले भगवान के सामने दीपक जलाया जाता है। धार्मिक कारण दीपक ज्ञान और रोशनी का प्रतीक है। पूजा में दीपक का विशेष महत्व है। आमतौर पर विषम संख्या में दीप प्रज्जवलित करने की परंपरा चली आ रही है। दरअसल, दीपक जलाने का कारण यह है कि हम अज्ञान का अंधकार मिटाकर अपने जीवन में ज्ञान के प्रकाश के लिए पुरुषार्थ करें। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार पूजा के समय दीपक लगाना अनिवार्य माना गया है। आरती कर घी का दीपक लगाने से घर में सुख समृद्धि आती है। इससे घर में लक्ष्मी का स्थाई रूप से निवास होता है। साथ ही, हमारे शास्त्रों के अनुसार पूजन में पंचामृत का बहुत महत्व माना गया है और घी उन्हीं पंचामृत में से एक माना गया है। वैज्ञानिक कारण दीपक को सकारात्मकता का प्रतीक व दरिद्रता को दूर करने वाला माना जाता है। गाय के घी में रोगाणुओं को भगाने की क्षमता होती है। यह घी जब दीपक में अग्नि के संपर्क से वातावरण को पवित्र बना देता है। इससे प्रदूषण दूर होता है। दीपक जलाने से पूरे घर को फायदा मिलता है। चाहे वह पूजा में सम्मिलित हो या नहीं। दीप प्रज्जवलन घर को प्रदूषण मुक्त बनाने का एक क्रम है। दीपक जलाते समय बोले ये मंत्र :- दीपज्योति: परब्रह्म: दीपज्योति: जनार्दन:। दीपोहरतिमे पापं संध्यादीपं नामोस्तुते।। शुभं करोतु कल्याणमारोग्यं सुखं सम्पदां। शत्रुवृद्धि विनाशं च दीपज्योति: नमोस्तुति।। ०००००>>दीपक जलाने के नियम :- १. दीपक की लौ पूर्व दिशा की ओर रखने से आयु में वृद्धि होती है। २. ध्यान रहे कि दीपक की लौ पश्चिम दिशा की ओर रखने से दुख बढ़ता है। ३. दीपक की लौ उत्तर दिशा की ओर रखने से धन लाभ होता है। ४. दीपक की लौ कभी भी दक्षिण दिशा की ओर न रखें, ऐसा करने से जन या धनहानि होती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

वास्तु शास्त्र - देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए घर में रखे ये 5 चीज़ें


अगर आप धन संबंधी परेशानियों को लेकर चिंतित रहते हैं तो इसका कारण आपके घर में मौजूद वास्तुदोष हो सकता है। इस दोष से मुक्ति और धन-सुख के लिए वास्तुशास्त्र में पांच चीजें ऐसी बताई गई हैं जिससे धन एवं सुख में बाधक तत्वों का प्रभाव दूर हो जाता है और देवी लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।

1. घर में रखें बांसुरी (Flute)

Flute Banshuri
बांसुरी को वास्तु दोष दूर करने में बहुत ही खास माना गया है। आर्थिक समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए व्यक्ति को चांदी की बांसुरी घर में रखना चाहिए। आप चाहें तो सोने की बांसुरी भी रख सकते हैं। वास्तु शास्त्र में अनुसार, सोने की बांसुरी घर में रखने से घर में लक्ष्मी का वास बना रहता है। अगर सोने अथवा चांदी का बांसुरी रखना संभव नहीं हो तो बांस से बनी बांसुरी घर में रख सकते हैं। इससे भी वास्तु दोष दूर होता है और धन पाने के योग बनने लगते हैं।

2. भगवान गणेश की नृत्य करती प्रतिमा (Dancing Ganesha)
Dancing Ganesha
वैसे तो भगवान गणेश हर रुप में मंगलकारी हैं, लेकिन धन-लक्ष्मी की परेशानियों को दूर करने के लिए नृत्य करती हुई गणेश प्रतिमा घर में रखना बहुत ही शुभ माना जाता है। भगवान गणेश की ऐसी प्रतिमा को इस प्रकार रखना चाहिए कि घर के मेन गेट पर भगवान गणेश की दृष्टि रहें। प्रतिमा नहीं होने पर तस्वीर भी लगा सकते हैं।

3. घर के मंदिर में रखें लक्ष्मी और कुबेर (Laxmi and Kuber)
Laxmi and Kuber
देवी लक्ष्मी की तस्वीर या मूर्ति तो लगभग सभी के घरों में होती हैं, लेकिन धन-धान्य पाने के लिए देवी लक्ष्मी के साथ घर में भगवान कुबेर की मूर्ति या तस्वीर रखना भी जरूरी होता है। स्थाई धन लाभ पाने के लिए घर में देवी लक्ष्मी और भगवान कुबेर दोनों की पूजा की जानी चाहिए। भगवान कुबेर उत्तर दिशा के स्वामी माने जाते हैं, इसलिए इन्हें हमेशा उत्तर दिशा में ही स्थापित करना चाहिए।

4. घर के मंदिर में शंख रखना होता है शुभ (Shankh)
Shankh
वास्तु के अनुसार, शंख में वास्तु दोष दूर करने की अद्भुत शक्ति होती है। जिस घर में शंख रखा होता है, वहां हर तरफ पॉजिटिविटी होती है। शास्त्रों में अनुसार, जिस घर के पूजा स्थल में देवी लक्ष्मी के साथ शंख की स्थापना भी की जाती है और नियमित इसकी पूजा करनी चाहिए, वहां देवी लक्ष्मी स्वयं निवास करती हैं। ऐसे घर में धन संबंधी परेशानी कभी नहीं आती है।

5. एकाक्षी नारियल (Ekakshi Nariyal)
Laghu Nariyal, ekakshi nariyal
नारियल को श्रीफल कहा गया है और इसे देवी लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। श्रीफलों में एकाक्षी नारियल बहुत ही शुभ होता है। जिस घर में एकाक्षी नारियल रखा जाता है और इसकी नियमित पूजा होती है, वहां नेगेटिविटी नहीं ठहरती हैं, न ही कभी धन-धान्य की कमी होती है।

Wednesday

आचार्य चाणक्य की जीवनी पार्ट- 2 (Chanakya Jivani in Hindi Part- 2)


Chanakya Jivani in Hindi Part 2


सुवासिनी

दरिद्रता के वातावरण में कौटिल्य धीरे-धीरे बड़ा होने लगा।  वह अपने पिता से शिक्षा प्राप्त करता तथा मिटटी के खिलौनों से खेलता।  मित्र के नाम पर केवल सुवासिनी थी।  उम्र में लगभग तीन वर्ष छोटी। महामात्य शकटार की इकलौती संतान।

दोनों में गहरा प्रेम था। सुवासिनी का मन-पसंद खेल था घर-घर खेलना। वह एक छोटा-सा घर बनाकर उसके चारो और लकड़ी की सूखी-सूखी टहनियाँ गाड़कर उनका बाग़ बनाती थी और घर को साफ़-सुथरा करके सुन्दर बनाने का प्रयास करती थी।

"देखो तो!" फिर वह चाणक्य से कहती-"हमारा घर कितना सुन्दर बना है। "

चाणक्य घर को देखता, फिर कहता-"यह क्या सुवासिनी! तुमने तो मेरी जगह  भी घेर ली। मैं पढ़ाई कहाँ करूँगा? यज्ञ कहाँ करूँगा?"

"यह मेरा घर है। " सुवासिनी तुनककर उत्तर देती -"कोई अध्ययन-शाला, पूजाघर या यज्ञशाला नहीं है।  देखो, यह रसोई है।  इसमें में भोजन बनाया करुँगी।  यह शयनकक्ष है।  इसमें हम विश्राम किया करेंगे।  यह आँगन है।  यहाँ हमारे बच्चे खेल करेंगे।"

"लेकिन जिस घर में अध्ययन नहीं होता, पूजा-पाठ नहीं होता या यज्ञ नहीं होता, वह नरक के तुल्य होता है. ऐसे घर में मैं न रहूँगा। "

"तुम क्रोध न करो!" तब सुवासिनी  हुए कहती-"मैं इससे बड़ा घर बनाउंगी. उसमें अध्ययन-कक्ष भी होगा, पूजा कक्ष भी होगा और यज्ञशाला भी होगी।  अब तो हंसो न! क्यों मुँह फुलाए बैठे हो? अच्छे पति अपनी पत्नी पर कभी नहीं बिगड़ते। "

और कौटिल्य हंस देता, तभी राज-सैनिक वहां आ पहुँचते और कहते-"अब चलिए देवी! महामंत्री जी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। "

थोड़ी देर खेलने के बाद सुवासिनी कौटिल्य से अलग हो जाती, परन्तु खेल-खेल में उनके हृदय में जो प्रेम के अंकुर फूटे थे, धीरे-धीरे पनपते जा रहे थे।

सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे
आचार्य चणक और महामात्य शकटार प्रायः मिलते तथा राजनीति पर चर्चा करते।  एक दिन चणक ने प्रश्न किया-"क्या राष्ट्र की परिस्थतियां यूँ ही चलती रहेगी ? जब विदेशी सेनाएं आक्रमण कर देंगी, तब तुम संभालोगे?"

"मेरी समझ में नहीं आ रहा की क्या करूँ? मैंने महाराज को बहुत समझाया , परन्तु वे मानते ही नहीं। "

"ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती मित्र! यूँ समझाने से राजा कुछ नहीं समझेगा। उंगली टेढ़ी करनी ही होगी।  वह भी होशियारी और सतर्कता से। "

"मैं कुछ समझा नहीं चणक। "

"नंद के हाथों में मगध सुरक्षित नहीं है।  मगध का सम्मान धुल में मिलता जा रहा है।  आस-पास के छोटे राजा भी इस पर दृष्टि गड़ाए है। "

"मैं इस बात को समझता हूँ, परन्तु क्या किया जाए?"

"महाराज का खात्मा!" चणक धीरे से बोले।

शकटार यूँ उछाल पड़े जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो।  विस्फारित नेत्रों से वो चणक को देखने लगे।

"मगध की सुरक्षा के लिए यह बहुत आवश्यक है।  यह काम ऐसे ढंग से होना चाहिए की वास्तविकता कोई जान ही न पाए।"

"परन्तु महाराज का वध करेगा कौन?"

"यह कार्य तुम्हें ही करना होगा महामंत्री, किसी और को यह कार्य सौपा गया तो काम अधूरा भी रह सकता है और भेद भी खुल सकता है। "

"परन्तु मैं यह काम कैसे कर पाउँगा?" शकटार बोले-"जब तक राक्षस और कात्यायन जैसे मंत्री महाराज के कवच हैं, मैं उनको छू भी नहीं सकता। "

"काम को योजनाबद्ध उपाय से करो।  सबसे पहले तुम महारज के सबसे अधिक विश्वासपात्र बनो। जब महाराज तुम पर सबसे अधिक विश्वास करने लगे, तब कात्यायन को किसी प्रकार मंत्री पद से हटवा दो। "

"फिर?" शकटार ने मंत्रमुग्ध स्वर में पूंछा।

"फिर कात्यायन को किसी प्रकार यह विश्वास दिलाओ की उस पर तुम्हारी बड़ी कृपा है  और तुम उसे पुनः मंत्री बनवाना चाहते हो। "

"इसका लाभ क्या होगा?"

"उसे तुम पर दृढ़ विश्वास हो जाएगा।  बाद में महाराज से प्रार्थना करके उसे पुनः मंत्री पद दिलवा भी दो। इससे कात्यायन तुम्हारा भक्त बन जाएगा।  एक संकेत पर ही वह तुम्हारे लिए प्राण न्यौछावर कर देगा।"

"लेकिन महाराज का वध करने से कुछ नहीं होगा मित्र।  सेनापति सूर्यगुप्त शीघ्र ही सब पता लगा लेगा।  तब वह मुझे नहीं छोड़ेगा।"

"सूर्यगुप्त एक लोभी व्यक्ति है। " चणक हंसकर बोले-"उसे तुम यदि राज्य का लालच दोगे तो वह तुम्हारे साथ मिल जाएगा?"

"और राक्षस?" शकटार ने पूंछा-"जो केवल राष्ट्रभक्त ही नहीं, बल्कि राजभक्त भी है।  नंदभक्त भी है। जो महाराज के लिए कुछ भी कर सकता है, उसका क्या होगा?"

"हर व्यक्ति में कोई-न-कोई कमजोरी अवश्य होती है मित्र।  मैं जानता हूँ की राक्षस पर महाराज अटूट विश्वास करते हैं।  वह बलशाली भी बहुत है, लेकिन कूटनीति से वह वश में आ जाएगा।  जहाँ तक मैं समझता हूँ , मात्र एक सुन्दर स्त्री उसे वश में कर सकती है। "

"परन्तु ऐसी सुन्दर स्त्री आएगी कहां से, जो राक्षस को भी वश में कर ले और हमारे कहने पर भी चलती रहे।"

"इसका प्रबंध मैं कर दूंगा। "

"तुम्हारी नज़र में है कोई ऐसी स्त्री। "

"है।  तुम बेला नाइन को जानते हो ?"

"जानता हूँ। "

"उसकी एक बेटी है।  मुरा नाम है उसका। "

"लेकिन वह राक्षस तक कैसे पहुंचेगी?"

"इसका उपाय है। " चणक शांत स्वर में बोले-"तुम किसी प्रकार स्वयं को सख्त बीमार घोषित कर दो।  तब राक्षस तुम्हारा पता करने अवश्य आएगा।  बस! मुरा उसे वही दिखाई दे जाएगी।  सौंदर्य की साक्षात प्रतिमा है मुरा। राक्षस उसे देखते ही मोहित हो जाएगा। "

"बहुत अच्छा उपाय है। " शकटार बोला -"आपके जाते ही मैं स्वयं को अस्वस्थ घोषित कर देता हूँ। '

चणक यूँ मुस्कुराए जैसे सफलता के मिकत पहुँच गए हो।

राक्षस का शक
बहुत बुद्धिमान था राक्षस।  उसे महामात्य का अचानक अस्वस्थ हो जाना कोईसामान्य घटना न लगी।  उसका चीख-चीखकर कर कह रहा था कि उस घटना में कोई भेद था।  उसने पूरी छानबीन करने का निर्णय लिया।

वह महामात्य के घर के निकट जा पहुंचा।  उसने गिद्ध-दृष्टि  आस-पास देखा, फिर द्वार पर खड़े प्रहरी से बोला-"जब महामंत्रीजी अस्वस्थ हुए, उससे पहले उनसे मिलने कौन आया था?"

"उस समय मैं पहरे पर नहीं था देव!" प्रहरी ने उत्तर दिया।

"जो था उसे तत्काल उपस्तिथ करो। "

राक्षस की आज्ञा का तुरंत पालन हुआ।  राक्षस ने दूसरे प्रहरी से भी वही प्रशन पूछा।

"आचार्य चणक आए थे देव! वे बहुत समय तक महामात्य जी से बातें कर रहे थे। फिर लौट गए थे। " उत्तर मिला।

"चणक! वह दरिद्र ब्राह्मण?"

"हां देव!"

"उसके जाने के बाद क्या हुआ?"

"महामात्यजी  अस्वस्थ होने की सूचना मिली। "

"बेल नाइन की लड़की यहां कब आई?"

"महामात्यजी के अस्वस्थ होने के थोड़ी ही देर बाद। "

"क्या वह यहां पहले भी आया करती थी ?"

"नहीं देव ! वह पहली बार यहाँ आई है। कहती थी, उसे आचार्य चणक ने भेजा है। "

राक्षस गहराई से सोचने लगा।  कुछ ही समय बाद  उसने अगला प्रशन किया-"क्या मुरा अब भी यही है?"

"वह तो आपके जाने के तत्काल बाद यहां से चली गई थी। "

"उसने अपने आने का कोई प्रयोजन बताया था?"

"नहीं देव!"

"ठीक है !" राक्षस बोला-मैंने तुम दोनों से जो पूछताछ की है, उसके बारे में किसी को कुछ नहीं बताना।  यदि बताया तो मृत्यदंड मिलेगा। "

"आप निश्चिन्त रहे देव! हम किसी को कुछ नहीं बताएंगे। "

शुक्रनीति: कितनी भी कोशिश कर लें, ये 6 चीज़ें हमेशा नहीं टिकती


कई चीजें ऐसी होती हैं, जो मनुष्य को बहुत प्रिय होती है। उन्हें पाने या उस पर हमेशा अधिकार बनाए रखने के लिए वह बहुत कोशिश करता है, लेकिन एक समय आने पर वह वस्तु उससे दूर हो ही जाती है। शुक्रनीति में ऐसी ही 6 वस्तुओं के बारे में बताया गया हैं, जिन्हें हमेशा अपने पास बनाए रखना किसी के लिए भी संभव नहीं है। शुक्रनीति एक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ है। इसकी रचना दानवों के गुरु शुक्राचार्य ने की थी।
श्लोक 

यौवनं जीवितं चित्तं छाया लक्ष्मीश्र्च स्वामिता।
चंचलानि षडेतानि ज्ञात्वा धर्मरतो भवेत्।।

1. यौवन और रूप
हर कोई चाहता हैं कि उसका रूप-रंग हमेशा ऐसे ही बना रहे, वो कभी बूढ़ा न हों, लेकिन ऐसा होना किसी के भी संभव नहीं होता है। यह प्रकृति का नियम है कि एक समय के बाद हर किसी का युवा अवस्था उसका साथ छोड़ती ही है। अब हमेशा युवा बने रहने के लिए मनुष्य चाहे कितनी ही कोशिशें कर ले, लेकिन ऐसा नहीं कर पाता।

2. जीवन
जन्म और मृत्यु मनुष्य जीवन के अभिन्न अंग है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित ही है। कोई भी मनुष्य चाहे कितने ही पूजा-पाठ कर ले या दवाइयों का सहारा ले, लेकिन एक समय के बाद उसकी मृत्यु होगी ही। इसलिए, अपने या अपने किसी भी प्रियजन के जीवन से मोह बांधना अच्छी बात नहीं है।

3. मन
हर किसी का मन बहुत ही चंचल होता हैं, यह मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। कई लोग कोशिश करते हैं कि उनका मन उनके वश में रहे, लेकिन कभी न कभी उनका मन उनके वश से बाहर हो ही जाता है और वे ऐसे काम कर जाते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। कुछ लोगों का मन धन-दौलत में होता है तो कुछ लोगों का अपने परिवार में। मन को पूरी तरह से वश में करना तो बहुत ही मुश्किल है, लेकिन योग और ध्यान की मदद से काफी हद तक मन पर काबू पाया जा सकता है।

4. परछाई
मनुष्य की परछाई उसका साथ सिर्फ तब तक देती है, जब तक वह धूप में चलता है। अंधकार आते ही मनुष्य की छाया भी उसका साथ छोड़ देती है। जब मनुष्य की अपनी छाया हर समय उसका साथ नहीं देती ऐसे में किसी भी अन्य व्यक्ति से इस बात की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि वे हर समय हर परिस्थिति में आपका साथ देंगे।

5. लक्ष्मी ( धन)
धन-संपत्ति हर किसी की चाह होती है। हर मनुष्य चाहता है कि उसके पास धन-दौलत हो, जीवन की साभी सुख-सुविधाएं हों। ऐसे में कई लोग धन से अपना मोह बाध लेते हैं। वे चाहते हैं कि उनका धन हमेशा उन्हीं के पास रहें, लेकिन ऐसा हो पाना संभव नहीं होता। मन की तरह ही धन का भी स्वभाव बड़ा ही चंचल होता है। वह हर समय किसी एक जगह पर या किसी एक के पास नहीं टिकता। इसलिए धन से मोह बांधना ठीक नहीं होता।

6. सत्ता या अधिकार
कई लोगों को पॉवर यानि अधिकार पाने का शौक होता है। वे लोग चाहते हैं कि उन्हें मिला पद या अधिकार पूरे जीवन उन्हीं के साथ रहें, लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है। जिस तरह परिवर्तन प्रकृति का नियम है, उसी तरह पद और अधिकारों का परिवर्तन भी समय-समय पर जरूरी होता है। ऐसे में अपने वर्तमान पद या अधिकार को हमेशा अपने ही पास रखने की इच्छा मन में नहीं आने देनी चाहिए।

मान्यता है की आज भी जिंदा है अश्वत्थामा। जानिए उनसे जुडी कुछ रोचक बातें।


महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत में ऐसे अनेक पात्र हैं, जिनके बारे में लोग जानना चाहते हैं। अश्वत्थामा भी उन्हीं में से एक हैं। अश्वत्थामा महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। हिंदू धर्म में जिन 8 महापुरुषों को अमर माना गया है, अश्वत्थामा भी उन्हीं से से एक है। मृत्यु से पहले दुर्योधन ने अश्वत्थामा को कौरवों का अंतिम सेनापति बनाया था। अश्वत्थामा से जुड़ी ऐसी अनेक रोचक बातें हैं, जो बहुत कम लोग जानते हैं। आज हम आपको वही बातें बता रहे हैं-


Interesting Facts about Ashwatthama
महादेव के अंशावतार हैं अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार, गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही अच्चै:श्रवा अश्व के समान शब्द किया, इसी कारण उसका नाम अश्वत्थामा हुआ। वह महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुआ था। अश्वत्थामा महापराक्रमी था। युद्ध में उसने कौरवों का साथ दिया था। मान्यता है कि अश्वत्थामा आज भी जीवित है। इनका नाम अष्ट चिरंजीवियों में लिया जाता है। इस मान्यता से जुड़ा एक श्लोक भी है-

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

अर्थात- अश्वथामा, बलि, वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।

अश्वत्थामा को अधिक ज्ञान देना चाहते थे द्रोणाचार्य
महाभारत के अनुसार, द्रोणाचार्य जब कौरवों व पांडवों को शिक्षा दे रहे थे, तब उनका एक नियम था। उसके अनुसार, द्रोणाचार्य ने अपने सभी शिष्यों को पानी भरने का एक-एक बर्तन दिया था। जो सबसे पहले उस बर्तन में पानी भर लाता था, द्रोणाचार्य उसे धनुर्विद्या के गुप्त रहस्य सिखा देते थे। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र अश्वत्थामा पर विशेष प्रेम था, इसलिए उन्होंने उसे छोटा बर्तन दिया था।
जिससे वह सबसे पहले बर्तन में पानी भर कर अपने पिता के पास पहुंच जाता और शस्त्रों से संबंधित गुप्त रहस्य समझ लेता था। अर्जुन ने वह बात समझ ली। अर्जुन वारुणास्त्र के माध्यम से जल्दी अपन बर्तन में पानी भरकर द्रोणाचार्य के पास पहुंच जाते और गुप्त रहस्य सीख लेते। इसीलिए अर्जुन किसी भी मामले में अश्वत्थामा से कम नहीं थे।

जब अश्वत्थामा ने चलाया नारायण अस्त्र
युद्ध में जब धृष्टद्युम्न ने छल से द्रोणाचार्य का वध कर दिया था तो अश्वत्थामा बहुत क्रोधित हुए। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने पांडवों पर नारायण अस्त्र चलाया। इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों की सेना में खलबची मच गई। अश्वत्थामा ने इस अस्त्र के बारे में दुर्योधन को बताया- यह अस्त्र गुरु द्रोण को स्वयं भगवान नारायण ने दिया था। यह शत्रु का नाश किए बिना नहीं लौटता। नारायणास्त्र से अनेक प्रकार के दिव्यास्त्रों का नाश भी संभव है।

जब श्रीकृष्ण ने देखा कि नारायण अस्त्र से सेना भाग रही है और पांडवों के प्राण भी संकट में हैं, तब उन्होंने कहा - सभी अपने-अपने रथों व अन्य सवारियों से उतरकर, अपने शस्त्रों को नीचे रखकर इस अस्त्र की शरण में चले जाओ। नारायण अस्त्र की शांति का यही एकमात्र उपाय है। सभी ने श्रीकृष्ण की यह बात मान ली। इस प्रकार नारायण अस्त्र का प्रकोप शांत हुआ और पांडवों के प्राण बच गए।

जब श्रीकृष्ण-अर्जुन पर नहीं हुआ आग्नेय अस्त्र का असर
नारायण अस्त्र के विफल होने पर अश्वत्थामा ने आग्नेयअस्त्र का प्रयोग किया। ये अस्त्र भी महाभयंकर था। इसकी अग्नि से पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई। उस अस्त्र के प्रभाव से हवा गरम हो गई। बड़े-बड़े हाथी चारों और चिघांड़ते हुए गिरने लगे। तब अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र चलाया। ब्रह्मास्त्र चलाते ही फिर से हवा गति से चलने लगी। अर्जुन, श्रीकृष्ण व उनके रथ पर भी आग्नेय अस्त्र का कोई प्रभाव नहीं हुआ।
अर्जुन व श्रीकृष्ण पर आग्नेय अस्त्र का कोई भी प्रभाव न होते देख अश्वत्थामा को बहुत आश्चर्य हुआ। तभी महर्षि वेदव्यास वहां आए और उन्होंने अश्वत्थामा को बताया कि श्रीकृष्ण व अर्जुन भगवान नर-नारायण के अवतार हैं। उन पर किसी भी अस्त्र का प्रभाव नहीं हो सकता। पूर्व समय में भगवान नारायण ने तपस्या करके भगवान महादेव से अनेक वरदान प्राप्त किए हैं। उसी के प्रभाव से उन पर विजय पाना संभव नहीं है। महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अश्वत्थामा रणभूमि से चले गए।

अश्वत्थामा ने मांग लिया कृष्ण का सुदर्शन चक्र
एक बार अश्वत्थामा द्वारिका गए। भगवान कृष्ण ने उसका बहुत स्वागत किया और उसे अतिथि के रूप में अपने महल में ठहराया। कुछ दिन वहां रहने के बाद एक दिन अश्वत्थामा ने श्रीकृष्ण से कहा कि वो उसका अजेय ब्रह्मास्त्र लेकर उसे अपना सुदर्शन चक्र दे दें। भगवान ने कहा ठीक है, मेरे किसी भी अस्त्र में से जो तुम चाहो, वो उठा लो। मुझे तुमसे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए।

अश्वत्थामा ने भगवान के सुदर्शन चक्र को उठाने का प्रयास किया, लेकिन वो टस से मस नहीं हुआ। उसने कई बार प्रयास किया, लेकिन हर बार उसे असफलता मिली। उसने हारकर भगवान से चक्र न लेने की बात कही। अश्वत्थामा बहुत शर्मिंदा हुए। वह बिना किसी शस्त्र-अस्त्र को लिए ही द्वारिका से चले गए।

कौरवों का अंतिम सेनापति था अश्वत्थामा
जब भीम ने गदा युद्ध में दुर्योधन की जांघें तोड़ दी और मरने के लिए छोड़ दिया, तब वहां अश्वत्थामा, कृपाचार्य व कृतवर्मा आए। दुर्योधन को उस अवस्था में देख अश्वत्थामा ने प्रण किया कि वह पांडवों से बदला लेगा। दुर्योधन के कहने पर कृपाचार्य ने अश्वत्थामा को सेनापति बनाया। अश्वत्थामा ने सोचा कि रात के समय पांडव आदि वीर विजय प्राप्त कर अपने-अपने शिविरों में आराम कर रहे होंगे। अत: इसी अवस्था में उनका वध करना संभव है। (श्रीकृष्ण व पांडव उस समय कौरव शिविर में थे, ये बात अश्वत्थामा नहीं जानता था)। कृपाचार्य ने अश्वत्थामा से कहा कि रात्रि में सोते हुए वीरों पर प्रहार करना नियम विरुद्ध है, लेकिन अश्वत्थामा ने कृपाचार्य की बात नहीं मानी। अंत में कृपाचार्य व कृतवर्मा भी अश्वत्थामा का साथ देने के लिए राजी हो गए।

महादेव से युद्ध किया था अश्वत्थामा ने
पांडवों से बदला लेने के उद्देश्य से अश्वत्थामा जब रात के समय उनके शिविर तक पहुंचा। तो उसने देखा कि पांडवों के शिविर के बाहर एक विशालकाय पुरुष दरवाजे पर खड़ा है। उसने बाघ तथा हिरण की खाल पहन रखी है। उसकी अनेक भुजाएं हैं और उन भुजाओं में तरह-तरह के शस्त्र हैं। उसके मुख से आग की लपटें निकल रही हैं।

उस पुरुष के तेज से हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे। वह स्वयं भगवान महादेव ही थे। महादेव के उस भयंकर रूप को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं और उन पर दिव्यास्त्रों से प्रहार करने लगा, लेकिन उन अस्त्रों का महादेव पर कोई असर नहीं हुआ। यह देख अश्वत्थामा भगवान शंकर की उपासना करने लगा और स्वयं की बलि देने लगा।

तब महादेव ने अश्वत्थामा से कहा कि श्रीकृष्ण ने तपस्या, नियम, बुद्धि व वाणी से मेरी आराधना की है। इसलिए उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है। पांचालों की रक्षा भी मैं उन्हीं के लिए कर रहा था। किंतु कालवश अब ये निस्तेज हो गए हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है। ऐसा कहकर महादेव ने अश्वत्थामा को एक तलवार दी और स्वयं को अश्वत्थामा के शरीर में लीन कर दिया। इस प्रकार अश्वत्थामा अत्यंत तेजस्वी हो गया।

अश्वत्थामा ने किया था द्रौपदी के पुत्रों का वध
महादेव से शक्ति प्राप्त कर अश्वत्थामा ने पांडवों के शिविर में प्रवेश किया। अश्वत्थामा ने सबसे पहले द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न को पीट-पीट कर मार दिया। इसके बाद अश्वत्थामा ने उत्तमौजा, युधामन्यु, शिखंडी आदि वीरों का भी वध कर दिया।  उसके बाद अश्वत्थामा ने महादेव की तलवार से द्रोपदी के सोते हुए पुत्रों का भी वध कर दिया।

देखते ही देखते अश्वत्थामा ने पांडवों की बची हुई सेना का भी सफाया कर दिया। इस प्रकार का भयंकर कर्म करने के बाद अश्वत्थामा शिविर से बाहर आया और उसने पांचाल वीरों व द्रौपदी के पुत्रों के वध के बारे में कृतवर्मा व कृपाचार्य को बताया। तीनों ने निश्चय किया कि ये समाचार तुरंत ही दुर्योधन को बताना चाहिए।
ऐसा विचार कर ये तीनों दुर्योधन के पास पहुंचे। उस समय तक दुर्योधन ने प्राण नहीं त्यागे थे। दुर्योधन के पास जाकर अश्वत्थामा ने उसे बताया कि इस समय पांडव पक्ष में केवल श्रीकृष्ण, सात्यकि और पांडव ही शेष बचे हैं, शेष सभी का वध हो चुका है। ये समाचार सुनकर दुर्योधन प्रसन्न हुआ पर थोड़ी ही देर में उसके प्राण निकल गए।

श्रीकृष्ण ने दिया था अश्वत्थामा को श्राप
जब अश्वत्थामा ने सोते हुए द्रौपदी के पुत्रों का वध कर दिया, तब पांडव क्रोधित होकर उसे ढूंढने निकले। अश्वत्थामा को ढूंढते हुए वे महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचे। अश्वत्थामा ने देखा कि पांडव मेरा वध करने के लिए यहां आ गए हैं तो उसने पांडवों का नाश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का वार किया। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों ब्रह्मास्त्रों की अग्नि से सृष्टि जलने लगी। सृष्टि का संहार होते देख महर्षि वेदव्यास ने अर्जुन व अश्वत्थामा से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र लौटाने के लिए कहा।

अर्जुन ने तुरंत अपना अस्त्र लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था। इसलिए उसने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी और कहा कि मेरे इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों का वंश समाप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा कि तुम्हारा अस्त्र अवश्य ही अचूक है, किंतु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न मृत शिशु भी जीवित हो जाएगा।

ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी से बात नहीं कर पाओगे। तुम्हारे शरीर से पीब व रक्त बहता रहेगा। इसके बाद अश्वत्थामा ने महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपनी मणि निकाल कर पांडवों को दे दी और स्वयं वन में चला गया। अश्वत्थामा से मणि लाकर पांडवों ने द्रौपदी को दे दी और बताया कि गुरु पुत्र होने के कारण उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित छोड़ दिया है।