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आचार्य चाणक्य की जीवनी पार्ट- 2 (Chanakya Jivani in Hindi Part- 2)


Chanakya Jivani in Hindi Part 2


सुवासिनी

दरिद्रता के वातावरण में कौटिल्य धीरे-धीरे बड़ा होने लगा।  वह अपने पिता से शिक्षा प्राप्त करता तथा मिटटी के खिलौनों से खेलता।  मित्र के नाम पर केवल सुवासिनी थी।  उम्र में लगभग तीन वर्ष छोटी। महामात्य शकटार की इकलौती संतान।

दोनों में गहरा प्रेम था। सुवासिनी का मन-पसंद खेल था घर-घर खेलना। वह एक छोटा-सा घर बनाकर उसके चारो और लकड़ी की सूखी-सूखी टहनियाँ गाड़कर उनका बाग़ बनाती थी और घर को साफ़-सुथरा करके सुन्दर बनाने का प्रयास करती थी।

"देखो तो!" फिर वह चाणक्य से कहती-"हमारा घर कितना सुन्दर बना है। "

चाणक्य घर को देखता, फिर कहता-"यह क्या सुवासिनी! तुमने तो मेरी जगह  भी घेर ली। मैं पढ़ाई कहाँ करूँगा? यज्ञ कहाँ करूँगा?"

"यह मेरा घर है। " सुवासिनी तुनककर उत्तर देती -"कोई अध्ययन-शाला, पूजाघर या यज्ञशाला नहीं है।  देखो, यह रसोई है।  इसमें में भोजन बनाया करुँगी।  यह शयनकक्ष है।  इसमें हम विश्राम किया करेंगे।  यह आँगन है।  यहाँ हमारे बच्चे खेल करेंगे।"

"लेकिन जिस घर में अध्ययन नहीं होता, पूजा-पाठ नहीं होता या यज्ञ नहीं होता, वह नरक के तुल्य होता है. ऐसे घर में मैं न रहूँगा। "

"तुम क्रोध न करो!" तब सुवासिनी  हुए कहती-"मैं इससे बड़ा घर बनाउंगी. उसमें अध्ययन-कक्ष भी होगा, पूजा कक्ष भी होगा और यज्ञशाला भी होगी।  अब तो हंसो न! क्यों मुँह फुलाए बैठे हो? अच्छे पति अपनी पत्नी पर कभी नहीं बिगड़ते। "

और कौटिल्य हंस देता, तभी राज-सैनिक वहां आ पहुँचते और कहते-"अब चलिए देवी! महामंत्री जी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। "

थोड़ी देर खेलने के बाद सुवासिनी कौटिल्य से अलग हो जाती, परन्तु खेल-खेल में उनके हृदय में जो प्रेम के अंकुर फूटे थे, धीरे-धीरे पनपते जा रहे थे।

सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे
आचार्य चणक और महामात्य शकटार प्रायः मिलते तथा राजनीति पर चर्चा करते।  एक दिन चणक ने प्रश्न किया-"क्या राष्ट्र की परिस्थतियां यूँ ही चलती रहेगी ? जब विदेशी सेनाएं आक्रमण कर देंगी, तब तुम संभालोगे?"

"मेरी समझ में नहीं आ रहा की क्या करूँ? मैंने महाराज को बहुत समझाया , परन्तु वे मानते ही नहीं। "

"ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती मित्र! यूँ समझाने से राजा कुछ नहीं समझेगा। उंगली टेढ़ी करनी ही होगी।  वह भी होशियारी और सतर्कता से। "

"मैं कुछ समझा नहीं चणक। "

"नंद के हाथों में मगध सुरक्षित नहीं है।  मगध का सम्मान धुल में मिलता जा रहा है।  आस-पास के छोटे राजा भी इस पर दृष्टि गड़ाए है। "

"मैं इस बात को समझता हूँ, परन्तु क्या किया जाए?"

"महाराज का खात्मा!" चणक धीरे से बोले।

शकटार यूँ उछाल पड़े जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो।  विस्फारित नेत्रों से वो चणक को देखने लगे।

"मगध की सुरक्षा के लिए यह बहुत आवश्यक है।  यह काम ऐसे ढंग से होना चाहिए की वास्तविकता कोई जान ही न पाए।"

"परन्तु महाराज का वध करेगा कौन?"

"यह कार्य तुम्हें ही करना होगा महामंत्री, किसी और को यह कार्य सौपा गया तो काम अधूरा भी रह सकता है और भेद भी खुल सकता है। "

"परन्तु मैं यह काम कैसे कर पाउँगा?" शकटार बोले-"जब तक राक्षस और कात्यायन जैसे मंत्री महाराज के कवच हैं, मैं उनको छू भी नहीं सकता। "

"काम को योजनाबद्ध उपाय से करो।  सबसे पहले तुम महारज के सबसे अधिक विश्वासपात्र बनो। जब महाराज तुम पर सबसे अधिक विश्वास करने लगे, तब कात्यायन को किसी प्रकार मंत्री पद से हटवा दो। "

"फिर?" शकटार ने मंत्रमुग्ध स्वर में पूंछा।

"फिर कात्यायन को किसी प्रकार यह विश्वास दिलाओ की उस पर तुम्हारी बड़ी कृपा है  और तुम उसे पुनः मंत्री बनवाना चाहते हो। "

"इसका लाभ क्या होगा?"

"उसे तुम पर दृढ़ विश्वास हो जाएगा।  बाद में महाराज से प्रार्थना करके उसे पुनः मंत्री पद दिलवा भी दो। इससे कात्यायन तुम्हारा भक्त बन जाएगा।  एक संकेत पर ही वह तुम्हारे लिए प्राण न्यौछावर कर देगा।"

"लेकिन महाराज का वध करने से कुछ नहीं होगा मित्र।  सेनापति सूर्यगुप्त शीघ्र ही सब पता लगा लेगा।  तब वह मुझे नहीं छोड़ेगा।"

"सूर्यगुप्त एक लोभी व्यक्ति है। " चणक हंसकर बोले-"उसे तुम यदि राज्य का लालच दोगे तो वह तुम्हारे साथ मिल जाएगा?"

"और राक्षस?" शकटार ने पूंछा-"जो केवल राष्ट्रभक्त ही नहीं, बल्कि राजभक्त भी है।  नंदभक्त भी है। जो महाराज के लिए कुछ भी कर सकता है, उसका क्या होगा?"

"हर व्यक्ति में कोई-न-कोई कमजोरी अवश्य होती है मित्र।  मैं जानता हूँ की राक्षस पर महाराज अटूट विश्वास करते हैं।  वह बलशाली भी बहुत है, लेकिन कूटनीति से वह वश में आ जाएगा।  जहाँ तक मैं समझता हूँ , मात्र एक सुन्दर स्त्री उसे वश में कर सकती है। "

"परन्तु ऐसी सुन्दर स्त्री आएगी कहां से, जो राक्षस को भी वश में कर ले और हमारे कहने पर भी चलती रहे।"

"इसका प्रबंध मैं कर दूंगा। "

"तुम्हारी नज़र में है कोई ऐसी स्त्री। "

"है।  तुम बेला नाइन को जानते हो ?"

"जानता हूँ। "

"उसकी एक बेटी है।  मुरा नाम है उसका। "

"लेकिन वह राक्षस तक कैसे पहुंचेगी?"

"इसका उपाय है। " चणक शांत स्वर में बोले-"तुम किसी प्रकार स्वयं को सख्त बीमार घोषित कर दो।  तब राक्षस तुम्हारा पता करने अवश्य आएगा।  बस! मुरा उसे वही दिखाई दे जाएगी।  सौंदर्य की साक्षात प्रतिमा है मुरा। राक्षस उसे देखते ही मोहित हो जाएगा। "

"बहुत अच्छा उपाय है। " शकटार बोला -"आपके जाते ही मैं स्वयं को अस्वस्थ घोषित कर देता हूँ। '

चणक यूँ मुस्कुराए जैसे सफलता के मिकत पहुँच गए हो।

राक्षस का शक
बहुत बुद्धिमान था राक्षस।  उसे महामात्य का अचानक अस्वस्थ हो जाना कोईसामान्य घटना न लगी।  उसका चीख-चीखकर कर कह रहा था कि उस घटना में कोई भेद था।  उसने पूरी छानबीन करने का निर्णय लिया।

वह महामात्य के घर के निकट जा पहुंचा।  उसने गिद्ध-दृष्टि  आस-पास देखा, फिर द्वार पर खड़े प्रहरी से बोला-"जब महामंत्रीजी अस्वस्थ हुए, उससे पहले उनसे मिलने कौन आया था?"

"उस समय मैं पहरे पर नहीं था देव!" प्रहरी ने उत्तर दिया।

"जो था उसे तत्काल उपस्तिथ करो। "

राक्षस की आज्ञा का तुरंत पालन हुआ।  राक्षस ने दूसरे प्रहरी से भी वही प्रशन पूछा।

"आचार्य चणक आए थे देव! वे बहुत समय तक महामात्य जी से बातें कर रहे थे। फिर लौट गए थे। " उत्तर मिला।

"चणक! वह दरिद्र ब्राह्मण?"

"हां देव!"

"उसके जाने के बाद क्या हुआ?"

"महामात्यजी  अस्वस्थ होने की सूचना मिली। "

"बेल नाइन की लड़की यहां कब आई?"

"महामात्यजी के अस्वस्थ होने के थोड़ी ही देर बाद। "

"क्या वह यहां पहले भी आया करती थी ?"

"नहीं देव ! वह पहली बार यहाँ आई है। कहती थी, उसे आचार्य चणक ने भेजा है। "

राक्षस गहराई से सोचने लगा।  कुछ ही समय बाद  उसने अगला प्रशन किया-"क्या मुरा अब भी यही है?"

"वह तो आपके जाने के तत्काल बाद यहां से चली गई थी। "

"उसने अपने आने का कोई प्रयोजन बताया था?"

"नहीं देव!"

"ठीक है !" राक्षस बोला-मैंने तुम दोनों से जो पूछताछ की है, उसके बारे में किसी को कुछ नहीं बताना।  यदि बताया तो मृत्यदंड मिलेगा। "

"आप निश्चिन्त रहे देव! हम किसी को कुछ नहीं बताएंगे। "

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