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चाणक्य नीति - प्रथमोऽध्यायः श्लोक 01 का अर्थ


प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम् ।
नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम् ॥ 01 ॥


श्लोक का विवेचन:


प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम् ।

यह श्लोक भगवान विष्णु की स्तुति में है और इसमें भक्ति भाव से भगवान की प्रशंसा की गई है। यह कहता है कि भक्त अपने शिरसे विष्णु को प्रणाम करता है, जो त्रैलोक्य (तीनों लोक: स्वर्ग, मर्त्य, पाताल) के अधिपति और प्रभु हैं। इससे यह अर्थ निकलता है कि विष्णु तीनों लोकों के सर्वश्रेष्ठ और श्रेष्ठ प्रभु हैं।


नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम् ॥

यह भाग बताता है कि भगवान विष्णु ने नाना शास्त्रों का अध्ययन किया है और उन्होंने राजनीति की ऊँचाइयों का समझाया है। वह राजनीति में सम्मिलित हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि भगवान विष्णु राजनीति के सम्मुख सर्वोच्च और समर्थ हैं।


इस श्लोक का सारांश:

यह श्लोक हमें विष्णु की महत्वपूर्णता और उनके सर्वशक्तिमान स्वरूप की महिमा बताता है। भक्त अपने मन, वचन, और क्रिया से भगवान विष्णु का पूजन करता है और उनकी उपासना के माध्यम से सभी लोकों के शासक को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता है। श्लोक राजनीति में भगवान की ज्ञान की महत्वपूर्णता को भी बताता है और यह सिद्ध करता है कि भगवान विष्णु राजनीति के समर्थ गुरु हैं।

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