कुछ हज़ार वर्ष पूर्व का विशाल भारतवर्ष !
हिमालय से द्रविड़ तक तथा गांधार से ब्रह्मदेश तक फैला हुआ, परन्तु छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित। इसी भारतवर्ष का एक वैभव-संपन्न व शक्तिशाली राज्य था मगध। मगध के सीमावर्ती नगर में ही थी वह झोपडी, जहां आचार्य चणक निवास करते थे। आचार्य चणक बहुत विद्वान थे, परन्तु थे दरिद्र। उनके विशाल मस्तक पर तीन लम्बी व गहरी रेखाएं थी। नेत्र बहुत बड़े-बड़े और तीक्ष्ण थे। उनके शरीर पर सदा एक सफ़ेद धोती और जनेऊ रहता था। धोती का कुछ भाग वो अपने कन्धों पर डाले रहते थे। आचार्यजी की धर्मपत्नी भली स्त्री थी। वह अपने पति के सामान सुन्दर तथा संतोषी स्वभाव की थी। आचार्य उनसे बहुत प्रेम करते थे, परन्तु कभी-कभी निराश होकर कुछ उल्टा-सीधा भी कह बैठते थे।
निराश होने का कारण दरिद्रता नहीं थी, केवल निःसंतान होना था। विवाह हुए कई वर्ष हो गए थे, किन्तु अभी तक उन्हें पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। उन्हें अपना वंश समाप्त हो जाने की चिंता थी।
माँ बनने के लिए उनकी धर्मपत्नी ने भी कोई कम प्रयास नहीं किए थे। सभी देवताओं से प्रार्थना करने के साथ-साथ उन्होनें न जाने कितने ही संत-महात्माओं से आशीर्वाद लिए थे। कई घरेलु उपचार किए थे तथा टोने-टोटके तक किए थे, परन्तु किसी से भी कोई लाभ न हो रहा था। पति-पत्नी दोनों ही निराश हो चुके थे।
तीन साधु
एक दिन तीन साधु चणक की झोंपड़ी पर आए। उन्होंने भिक्षा की याचना की। चणक ने उन्हें हाथ जोड़ के प्रणाम किया और बोले-"महाराज! भोजन का समय हो रहा है, कृपया भीतर पधारकर मेरी कुटिया को पवित्र करें और भोजन करके ही जाएं। "
साधुओं ने चणक की प्रार्थना स्वीकार कर ली। जो रुखा-सुखा बना हुआ था उसे उन्होंने प्रेमपूर्वक खाया। जाते समय उन्होंने प्रसन्न होकर कहा -"ईश्वर की कृपा से शीघ्र ही तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। तुम्हारे वंश का नाम युगों-युगों तक रोशन रहेगा। "
पहले भी कई साधु इस प्रकार भोजन कर गए थे। वे भी इसी प्रकार आशीर्वाद दे गए थे तथा मन में एक उम्मीद जगा गए थे, परन्तु आशीर्वाद ने कोई फल न दिया, इसलिए उन तीन साधुओं द्वारा दिए गए आशीर्वाद से ब्राह्मण-दम्पति को कोई प्रसन्नता न हुई।
आशीर्वाद का प्रभाव
तीन साधुओं द्वारा दिया गया आशीर्वाद व्यर्थ न गया। एक दिन चणक की धर्मपत्नी गर्भवती हो गई। जब चणक को इसका पता चला तो वे प्रसन्नता से झूम उठे। उस समय उनके पास जितना भी धन था, वह सब उन्होंने दान कर दिया। जो भी साधु-संत मिला, उसे आग्रह कर-करके भोजन कराया। वर्षों बाद खुलकर हँसे तथा खुशियां मनाई।
"यह सब उन तीन साधुओं के आशीर्वाद का फल है। " वे अपनी पत्नी से बोले-"वे साधारण साधू नहीं थे। लगता है, ब्रह्मा, विष्णु व शंकर जी साधु बनकर आए थे, हमारी मनोकामना पूरी करने के लिए। हमें आशीर्वाद देने के लिए। "
"आप बिलकुल ठीक कह रहे है। " पत्नी ने कहा-"उन्होंने बिना मांगे ही हमें आशीर्वाद दिया था। हमारे बिना बताए ही वे जान गए थे की हमारे कोई संतान नहीं है।"
"फिर तो अवश्य ही पुत्र होगा। " चणक बोले -"उन्होंने कहा था , हमारे वंश का नाम युगों-युगों तक रोशन रहेगा। "
"मुझे याद है। उन्होंने यही कहा था। पुत्र ही होगा। ऐसा पुत्र, जिसके प्रकाश से यह सुनी कुटिया भी जगमगा जाएगी। सारा सूनापन दूर जाएगा। दिन-रात उसकी किलकारियां गूंजा करेगी। "
उस रात ब्राह्मण दंपति को नींद नहीं आई। वे अपने होने वाले पुत्र की कल्पनाओं में डूबे रहे। उसके बारे में तरह-तरह की बातें करते रहे तथा मधुर सपनों में खोए रहे।
एक विचित्र शिशु का जन्म
उचित अवसर आने पर चणक की पत्नी ने एक स्वस्थ, सुन्दर व विचित्र पुत्र को जन्म दिया। बालक का रंग माता-पिता जैसा न होकर सांवला था। उसका शरीर लगभग एक वर्ष के शिशु जैसा लगता था। विचित्र वह इसलिए था, क्योंकि जन्म के समय ही उसके मुंह में दो दांत निकले हुए थे।
उसका मस्तक चौड़ा, भृकुटियां बांकपन लिए हुए तथा नथुने यूँ फूले हुए थे जैसे बालक कुछ तनाव का अनुभव कर रहा हो। कभी-कभी वह अचानक यूँ मुस्कुरा पड़ता जैसे कोई रहस्य की बात समझ में आ गई हो।
हर माता-पिता के लिए पुत्र घर में प्रकाश करने वाला होता है। चाहे वह गोरा हो या काला। चणक व उसकी पत्नी पुत्र को पाकर फूले नहीं समा रहे थे। हाँ, उसके दांतों व क्रिया-कलापों को देखकर हैरान अवश्य थे।
चणक संतोष व धर्म-निष्ठां की साक्षात मूर्ति थे। उन्हें न धन की इच्छा थी, न सुख की लालसा। उनका सुख सीमित था। अपने कर्मकांड में, अपने घर में व अपने परिवार में उन्होंने कभी किसी का हृदय नहीं दुखाया था। जो कुछ मिला , उसे साधु-सन्यासियों पर खर्च कर दिया, परन्तु स्वयं के लिए कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। वे जीवन में केवल एक ही कमी का अनुभव करते थे। पुत्र-जन्म के साथ ही उनकी वह कमी दूर हो गई थी। वे स्वयं को संसार का सबसे सुखी व्यक्ति अनुभव कर रहे थे।
"बालक का रंग कुछ सांवला नहीं है?" अचानक पत्नी ने हिचकिचाते हुए उनसे पूंछा-"मैंने तो यह सुन रखा है कि बच्चे का रंग या तो माँ जैसा होता है या फिर पिता जैसा। "
"मगध पर अत्याचार के काले बादल जो छाए हुए हैं।" चणक बोलें-"क्रूर सैनिकों के आतंक ने मगध के भविष्य पर कालिख जो पोत दी है। शायद वही कालिख हमारे पुत्र को लग गई है। "
"क्या नंद ने फिर कोई नया अत्याचार किया?"
"वह एक विलासी राजा है। दिन-रात शराब और शबाब में डूबा रहता है। उसे प्रजा की सुध लेने का होश ही कहा है? किसी भी समय कुछ भी हो सकता है। राजकोष लुट रहा है। देश को चारों और से विदेशी घूर रहे हैं ! आस्तीन के सांप कुचक्र रच रहे है। पता नहीं क्या होगा। "
"काम-से-काम आज तो इन चिंताओं को त्याग दीजिए। ईश्वर को कोटि-कोटि धन्यवाद दीजिए, जिसने हमें पुत्र-रत्न दिया। वृद्धावस्था का सहारा दिया। "
"देवी ! चणक मुस्कुराकर बोले -"इस समय तो तुम ही मेरे लिए ईश्वर हो। पुत्र-रत्न की प्राप्ति मुझे तुमसे ही हुई है।"
"इसका नाम क्या रखेंगे?"
"वर्षों बाद हमें कुल-दीपक की प्राप्ति हुई है, अतः हम इसका नाम अपने कुल के अनुसार ही रखेंगे। हमारे कुल का नाम 'कोटिल' है। हम इसका नाम कौटिल्य रखते है ! कैसा लगा यह नाम?"
"आप इतने बड़े विद्वान हैं। साधारण नाम कैसे रख सकते हैं। आपने जो नाम रखा है, वह बहुत अच्छा है।"
"मैं इसे और दे ही क्या सकता हूँ। " एकाएक चणक कुछ उदास होकर बोले-"या तो नाम दे सकता हूँ या फिर ज्ञान। किसी राजा के घर पैदा होता, तो इसे जीवन का प्रत्येक सुख मिलता। "
"आप व्यर्थ ही दुखी हो रहे है। ज्ञान भोग से बड़ा है। विद्वान सदा से पूज्य रहा है। आप अपने पुत्र को इतनी शिक्षा देना की राजा और राज्य स्वयं इसके सामने आत्मसमर्पण करने को तैयार हो जाए।"
"जरूर!" चणकअपने पुत्र को निहारते हुए बोले -"इसे प्रतिभाशाली व यशस्वी बनाने के लिए मैं एड़ी-चोटी का जोर लगा दूंगा।
तभी नन्हा कौटिल्य किलकारियां मारने लगा। जैसे यह व्यक्त करना चाहता हो की माता-पिता के निर्णय से उसे प्रसन्नता हुई है।
हिमालय से द्रविड़ तक तथा गांधार से ब्रह्मदेश तक फैला हुआ, परन्तु छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित। इसी भारतवर्ष का एक वैभव-संपन्न व शक्तिशाली राज्य था मगध। मगध के सीमावर्ती नगर में ही थी वह झोपडी, जहां आचार्य चणक निवास करते थे। आचार्य चणक बहुत विद्वान थे, परन्तु थे दरिद्र। उनके विशाल मस्तक पर तीन लम्बी व गहरी रेखाएं थी। नेत्र बहुत बड़े-बड़े और तीक्ष्ण थे। उनके शरीर पर सदा एक सफ़ेद धोती और जनेऊ रहता था। धोती का कुछ भाग वो अपने कन्धों पर डाले रहते थे। आचार्यजी की धर्मपत्नी भली स्त्री थी। वह अपने पति के सामान सुन्दर तथा संतोषी स्वभाव की थी। आचार्य उनसे बहुत प्रेम करते थे, परन्तु कभी-कभी निराश होकर कुछ उल्टा-सीधा भी कह बैठते थे।
निराश होने का कारण दरिद्रता नहीं थी, केवल निःसंतान होना था। विवाह हुए कई वर्ष हो गए थे, किन्तु अभी तक उन्हें पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। उन्हें अपना वंश समाप्त हो जाने की चिंता थी।
माँ बनने के लिए उनकी धर्मपत्नी ने भी कोई कम प्रयास नहीं किए थे। सभी देवताओं से प्रार्थना करने के साथ-साथ उन्होनें न जाने कितने ही संत-महात्माओं से आशीर्वाद लिए थे। कई घरेलु उपचार किए थे तथा टोने-टोटके तक किए थे, परन्तु किसी से भी कोई लाभ न हो रहा था। पति-पत्नी दोनों ही निराश हो चुके थे।
तीन साधु
एक दिन तीन साधु चणक की झोंपड़ी पर आए। उन्होंने भिक्षा की याचना की। चणक ने उन्हें हाथ जोड़ के प्रणाम किया और बोले-"महाराज! भोजन का समय हो रहा है, कृपया भीतर पधारकर मेरी कुटिया को पवित्र करें और भोजन करके ही जाएं। "
साधुओं ने चणक की प्रार्थना स्वीकार कर ली। जो रुखा-सुखा बना हुआ था उसे उन्होंने प्रेमपूर्वक खाया। जाते समय उन्होंने प्रसन्न होकर कहा -"ईश्वर की कृपा से शीघ्र ही तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। तुम्हारे वंश का नाम युगों-युगों तक रोशन रहेगा। "
पहले भी कई साधु इस प्रकार भोजन कर गए थे। वे भी इसी प्रकार आशीर्वाद दे गए थे तथा मन में एक उम्मीद जगा गए थे, परन्तु आशीर्वाद ने कोई फल न दिया, इसलिए उन तीन साधुओं द्वारा दिए गए आशीर्वाद से ब्राह्मण-दम्पति को कोई प्रसन्नता न हुई।
आशीर्वाद का प्रभाव
तीन साधुओं द्वारा दिया गया आशीर्वाद व्यर्थ न गया। एक दिन चणक की धर्मपत्नी गर्भवती हो गई। जब चणक को इसका पता चला तो वे प्रसन्नता से झूम उठे। उस समय उनके पास जितना भी धन था, वह सब उन्होंने दान कर दिया। जो भी साधु-संत मिला, उसे आग्रह कर-करके भोजन कराया। वर्षों बाद खुलकर हँसे तथा खुशियां मनाई।
"यह सब उन तीन साधुओं के आशीर्वाद का फल है। " वे अपनी पत्नी से बोले-"वे साधारण साधू नहीं थे। लगता है, ब्रह्मा, विष्णु व शंकर जी साधु बनकर आए थे, हमारी मनोकामना पूरी करने के लिए। हमें आशीर्वाद देने के लिए। "
"आप बिलकुल ठीक कह रहे है। " पत्नी ने कहा-"उन्होंने बिना मांगे ही हमें आशीर्वाद दिया था। हमारे बिना बताए ही वे जान गए थे की हमारे कोई संतान नहीं है।"
"फिर तो अवश्य ही पुत्र होगा। " चणक बोले -"उन्होंने कहा था , हमारे वंश का नाम युगों-युगों तक रोशन रहेगा। "
"मुझे याद है। उन्होंने यही कहा था। पुत्र ही होगा। ऐसा पुत्र, जिसके प्रकाश से यह सुनी कुटिया भी जगमगा जाएगी। सारा सूनापन दूर जाएगा। दिन-रात उसकी किलकारियां गूंजा करेगी। "
उस रात ब्राह्मण दंपति को नींद नहीं आई। वे अपने होने वाले पुत्र की कल्पनाओं में डूबे रहे। उसके बारे में तरह-तरह की बातें करते रहे तथा मधुर सपनों में खोए रहे।
एक विचित्र शिशु का जन्म
उचित अवसर आने पर चणक की पत्नी ने एक स्वस्थ, सुन्दर व विचित्र पुत्र को जन्म दिया। बालक का रंग माता-पिता जैसा न होकर सांवला था। उसका शरीर लगभग एक वर्ष के शिशु जैसा लगता था। विचित्र वह इसलिए था, क्योंकि जन्म के समय ही उसके मुंह में दो दांत निकले हुए थे।
उसका मस्तक चौड़ा, भृकुटियां बांकपन लिए हुए तथा नथुने यूँ फूले हुए थे जैसे बालक कुछ तनाव का अनुभव कर रहा हो। कभी-कभी वह अचानक यूँ मुस्कुरा पड़ता जैसे कोई रहस्य की बात समझ में आ गई हो।
हर माता-पिता के लिए पुत्र घर में प्रकाश करने वाला होता है। चाहे वह गोरा हो या काला। चणक व उसकी पत्नी पुत्र को पाकर फूले नहीं समा रहे थे। हाँ, उसके दांतों व क्रिया-कलापों को देखकर हैरान अवश्य थे।
चणक संतोष व धर्म-निष्ठां की साक्षात मूर्ति थे। उन्हें न धन की इच्छा थी, न सुख की लालसा। उनका सुख सीमित था। अपने कर्मकांड में, अपने घर में व अपने परिवार में उन्होंने कभी किसी का हृदय नहीं दुखाया था। जो कुछ मिला , उसे साधु-सन्यासियों पर खर्च कर दिया, परन्तु स्वयं के लिए कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। वे जीवन में केवल एक ही कमी का अनुभव करते थे। पुत्र-जन्म के साथ ही उनकी वह कमी दूर हो गई थी। वे स्वयं को संसार का सबसे सुखी व्यक्ति अनुभव कर रहे थे।
"बालक का रंग कुछ सांवला नहीं है?" अचानक पत्नी ने हिचकिचाते हुए उनसे पूंछा-"मैंने तो यह सुन रखा है कि बच्चे का रंग या तो माँ जैसा होता है या फिर पिता जैसा। "
"मगध पर अत्याचार के काले बादल जो छाए हुए हैं।" चणक बोलें-"क्रूर सैनिकों के आतंक ने मगध के भविष्य पर कालिख जो पोत दी है। शायद वही कालिख हमारे पुत्र को लग गई है। "
"क्या नंद ने फिर कोई नया अत्याचार किया?"
"वह एक विलासी राजा है। दिन-रात शराब और शबाब में डूबा रहता है। उसे प्रजा की सुध लेने का होश ही कहा है? किसी भी समय कुछ भी हो सकता है। राजकोष लुट रहा है। देश को चारों और से विदेशी घूर रहे हैं ! आस्तीन के सांप कुचक्र रच रहे है। पता नहीं क्या होगा। "
"काम-से-काम आज तो इन चिंताओं को त्याग दीजिए। ईश्वर को कोटि-कोटि धन्यवाद दीजिए, जिसने हमें पुत्र-रत्न दिया। वृद्धावस्था का सहारा दिया। "
"देवी ! चणक मुस्कुराकर बोले -"इस समय तो तुम ही मेरे लिए ईश्वर हो। पुत्र-रत्न की प्राप्ति मुझे तुमसे ही हुई है।"
"इसका नाम क्या रखेंगे?"
"वर्षों बाद हमें कुल-दीपक की प्राप्ति हुई है, अतः हम इसका नाम अपने कुल के अनुसार ही रखेंगे। हमारे कुल का नाम 'कोटिल' है। हम इसका नाम कौटिल्य रखते है ! कैसा लगा यह नाम?"
"आप इतने बड़े विद्वान हैं। साधारण नाम कैसे रख सकते हैं। आपने जो नाम रखा है, वह बहुत अच्छा है।"
"मैं इसे और दे ही क्या सकता हूँ। " एकाएक चणक कुछ उदास होकर बोले-"या तो नाम दे सकता हूँ या फिर ज्ञान। किसी राजा के घर पैदा होता, तो इसे जीवन का प्रत्येक सुख मिलता। "
"आप व्यर्थ ही दुखी हो रहे है। ज्ञान भोग से बड़ा है। विद्वान सदा से पूज्य रहा है। आप अपने पुत्र को इतनी शिक्षा देना की राजा और राज्य स्वयं इसके सामने आत्मसमर्पण करने को तैयार हो जाए।"
"जरूर!" चणकअपने पुत्र को निहारते हुए बोले -"इसे प्रतिभाशाली व यशस्वी बनाने के लिए मैं एड़ी-चोटी का जोर लगा दूंगा।
तभी नन्हा कौटिल्य किलकारियां मारने लगा। जैसे यह व्यक्त करना चाहता हो की माता-पिता के निर्णय से उसे प्रसन्नता हुई है।
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