एक बार द्वारिका निवासी यदुकुल के कुछ लड़के पानी ढूंढ़ते हुए एक पुराने कुएं के पास पहुंचे| वह कुआं घास और फैली हुई बेलों से पूरी तरह ढका हुआ था| लड़कों ने घास हटाकर देखा तो कुएं में उन्हें एक बड़ा गिरगिट दिखाई पड़ा| उस गिरगिट को उन्होंने बाहर निकालना चाहा और इसी इच्छा से उन्होंने कुएं से रस्सी फेंकी, लेकिन गिरगिट पर्वत की तरह भारी हो गया और वे कितना भी जोर लगाकर उसे नहीं खींच सके|
उस समय तो उस गिरगिट को देखकर उन्हें डर-सा लगने लगा| तब वे भागे हुए भगवान श्रीकृष्ण के पास गए और कहने लगे, "हे वासुदेव ! एक कुएं में एक बहुत बड़ा गिरगिट बैठा हुआ है| वह चट्टान के बराबर भारी है| हम तो कितना भी जोर लगाकर उसे नहीं खींच पाए हैं| अब तुम चलकर उसे देखो तो कि वह क्या है| कहीं कोई दैत्य तो नहीं है| हमें तो उसे देखकर डर लगने लगा है|"
यादव लड़कों की बात सुनकर श्रीकृष्ण उनके साथ चल दिए और उसी कुएं पर पहुंचे| कुएं में देखा तो गिरगिट बैठा था| श्रीकृष्ण ने रस्सी फेंकी और बड़ी आसानी से गिरगिट को निकाल दिया| यह देखकर सभी लड़के आश्चर्य करने लगे| ज्यों ही गिरगिट बाहर आया श्रीकृष्ण ने उससे पूछा, "हे गिरगिट, तुम कौन हो? अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत तो कहो !"
गिरगिट ने कहा, "हे भगवन ! मैं पूर्वजन्म में राजा नृग था| अपने राज-काल में मैंने एक सहस्त्र यज्ञ किए थे|"
यह सुनकर कौतुहलवश श्रीकृष्ण ने पूछा, "लेकिन हे महाराज ! फिर भी आपकी यह अधोगति कैसे हुई? आप तो महादानी थे| आपने तो सहस्त्रों गाएं ब्राह्मणों को दान दी थीं और कभी भी कोई पाप नहीं किया था| फिर आपको यह दंड कैसे मिला?"
गिरगिट रूपधारी राजा नृग ने कहा, "हे भगवन ! बिना पाप के तो विधाता किसी को दण्ड नहीं देता| मैंने जानबूझकर तो कोई पाप नहीं किया, लेकिन मेरी एक भूल के कारण ही मुझसे अनजाने में पाप हो गया, उसी का दंड मुझे मिला है| सुनिए, मैं आपको सारा वृत्तांत सुनाता हूं -
हे भगवन ! एक अग्निहोत्री ब्राह्मण विदेश चला गया था| उसकी गाय भूल से मेरी गायों के झुण्ड में आ मिली थी| उसी समय एक ब्राह्मण मेरे पास आया था| उसे मैंने एक हजार गाएं दान दी थीं| दुर्भाग्यवश उस अग्निहोत्री ब्राह्मण की गाय भी उन हजारों में चली गई| कुछ दिनों बाद वह ब्राह्मण विदेश से लौटा तो अपनी गाय को खोजने लगा| खोजते-खोजते अंत में वह उसी ब्राह्मण के पास पहुंचा जिसको मैंने भूल से उसकी गाय दान में दे दी थी| अपनी गाय को पहचानकर वह उस ब्राह्मण से उस गाय को मांगने लगा, लेकिन ब्राह्मण बार-बार यही कहता था कि उसने राजा से यह गाय दान स्वरूप प्राप्त की है| जब उसने पूरी तरह गाय को देने से इनकार कर दिया तो अग्निहोत्री ब्राह्मण उस पर चोरी का अपराध लगाने लगा और उसी समय उन दोनों में झगड़ा बढ़ गया|
झगड़ते हुए, न्याय कराने के लिए वे मेरे पास आए| जिस ब्राह्मण को मैंने वह गाय दान में दे दी थी, वह कहने लगा, "हे राजन ! आपने यह गाय मुझे दान में दी है| यह ब्राह्मण देवता इसे अपनी कह कर लेना चाहते हैं और न देने पर मेरे ऊपर चोरी का अपराध लगाते हैं| आप मेरा न्याय कीजिए|"
उसी समय वह अग्निहोत्री ब्राह्मण क्रुद्ध होकर बोला, "हे राजन ! यह गाय तो मेरी है| मैं विदेश गया था, मालूम होता है उसी बीच यह तुम्हारे यहां आ गई| उस मेरी गाय को दान देने का आपको क्या अधिकार था? कृपया मेरी गाय मुझे वापस दीजिए|"
यह सुनकर तो मैं घबरा गया| मैं सोचने लगा कि भूल से यह कैसा अनर्थ हो गया| मैंने उस ब्राह्मण से, जिसके पास गाय थी, कहा, "हे ब्राह्मण ! आप उस गाय को इन ब्राह्मण देवता को दे दें, क्योंकि ये ही उसके अधिकारी हैं| उसके बदले में आपको दस हजार गाएं दूंगा|"
मेरी यह बात सुनकर तो वह ब्राह्मण खिन्न हो गया और बोला, "हे महाराज ! आपकी यह सुलक्षणा गाय तो प्रतिदिन स्वादिष्ट दुध देकर मेरे दुधमुंहे शिथिल बच्चे का पालन करती है| आप मुझे क्षमा करें|"
यह कह कर वह ब्राह्मण सीधे अपने घर चला गया| फिर मैंने अग्निहोत्री ब्राह्मण से कहा, "हे भगवन ! मैं इस गाय के बदले आपको एक लाख गाएं दूंगा| आप किसी प्रकार की चिंता न करें|"
मेरी बात सुनकर ब्राह्मण ने उत्तर दिया, "हे राजन ! मैं राजाओं का दान नहीं लेना चाहता| मैं अपनी जीविका स्वयं कमा लेता हूं| आप तो मेरी गाय ही मुझे दे दीजिए| इसके अलावा मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है|"
ब्राह्मण इसी बात पर हठ करने लगा| मैंने सोचा, चांदी, रत्न आदि अनेक बहुमूल्य वस्तुओं का प्रलोभन उन्हें दिया लेकिन किसी को उन्होंने स्वीकार नहीं किया| अंत में जब उसे गाय पीने की कोई सूरत नहीं दिखाई पड़ी तो वह मन में दुखी होता हुआ अपने घर चला गया| मेरे मन में इस कारण बड़ा दुख हुआ लेकिन मेरा वश ही क्या था| मैंने तो सबकुछ प्रयत्न किया था लेकिन विधाता ही मेरे प्रतिकूल था| परिस्थिति कुछ ऐसी कठिन बन गई कि उसको हल करना मेरी शक्ति से बाहर हो गया| हे भगवन ! यह पाप मुझसे भूल में हो गया, उसी के कारण जब शरीर त्यागकर मैं यमराज के समाने उपस्थित हुआ तो यमराज ने कहा, "हे राजा नृग ! आपके पुण्यों को तो थाह नहीं है लेकिन भूल से आपने ब्राह्मण की गाय का अपहरण किया था इसलिए इस पाप का दण्ड आपको अवश्य भोगना पड़ेगा| अब यह आपकी इच्छा के ऊपर निर्भर है कि आप पाप का फल पहले भोगना चाहते हो या पुण्य का फल|"
मैंने यमराज से कहा, "मैं पाप का फल पहले भोगना चाहता हूं| हे भगवन ! उसी समय में पृथ्वी पर गिरने लगा|"
तब चलते समय यमराज ने कहा, "हे राजा नृग ! हजार वर्ष बीतने पर आपके इस पाप का नाश होगा और भगवान श्रीकृष्ण आपका उद्धार करेंगे| तब अपने पुण्यों के फलस्वरूप तुम दिव्यलोक में जाओगे| हे भगवन ! तभी से मैं इस कुएं में गिरगिट के रूप में पड़ा अपने पाप का फल भोग रहा हूं| आज मेरा सौभाग्य है कि आप आए| इसी दिन की मैं प्रतीक्षा कर रहा था| अब मेरी यातना समाप्त हो गई और आपकी कृपा से मैं अब दिव्य लोक प्राप्त करूंगा| हे देव ! अब मुझे स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिए|"
श्रीकृष्ण ने कहा, "नृग, मैं उन्हें इसके लिए आज्ञा देता हूं|"
उसी समय नृग ने गिरगिट का रूप त्याग दिया| वे एक दिव्य पुरुष के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो गए| उसी क्षण सामने ही दिव्य विमान आ गया| जिसमें बैठकर राजा नृग स्वर्गलोक चले गए|
No comments:
Post a Comment