रूपकुंड झील - उत्तराखंड - यह है नरकंकालों वाली झील
यदि आप एडवेंचर ट्रैकिंग के शौक़ीन है तो रूपकुंड झील आपके लिए एक बेहतरीन जगह हैं। रूपकुंड झील ( Roopkund lake ) हिमालय के ग्लेशियरों के गर्मियों में पिघलने से उत्तराखंड के पहाड़ों मैं बनने वाली छोटी सी झील हैं।
यह झील 5029 मीटर ( 16499 फीट )कि ऊचाई पर स्तिथ हैं जिसके चारो और ऊचे ऊचे बर्फ के ग्लेशियर हैं। यहाँ तक पहुचे का रास्ता बेहद दुर्गम हैं इसलिए यह जगह एडवेंचर ट्रैकिंग करने वालों कि पसंदीदा जगह हैं।
यह झील यहाँ पर मिलने वाले नरकंकालों के कारण काफी चर्चित हैं। यहाँ पर गर्मियों मैं बर्फ पिघलने के साथ ही कही पर भी नरकंकाल दिखाई देना आम बात हैं। यहाँ तक कि झील के अंदर देखने पर भी तलहटी मैं भी नरकंकाल पड़े दिखाई दे जाते हैं।
यहाँ पर सबसे पहला नरकंकाल 1942 मैं एक रेंजर H. K. Madhwal द्वारा खोज गया था। तब से अब तक यहाँ पर सैकड़ो नरकंकाल मिल चुके हैं। जिसमे हर उम्र व लिंग के कंकाल शामिल हैं। यहाँ पर National Geographic Team द्वारा भी एक अभियान चलाया गया था जिसमे उन्हें 30 से ज्यादा नरकंकाल मिले थे।
यहाँ पर इतने सारे नरकंकाल आये कैसे इसके बारे मैं तीन अलग अलग कहानिया प्रचलित हैं।
यह झील 5029 मीटर ( 16499 फीट )कि ऊचाई पर स्तिथ हैं जिसके चारो और ऊचे ऊचे बर्फ के ग्लेशियर हैं। यहाँ तक पहुचे का रास्ता बेहद दुर्गम हैं इसलिए यह जगह एडवेंचर ट्रैकिंग करने वालों कि पसंदीदा जगह हैं।
यह झील यहाँ पर मिलने वाले नरकंकालों के कारण काफी चर्चित हैं। यहाँ पर गर्मियों मैं बर्फ पिघलने के साथ ही कही पर भी नरकंकाल दिखाई देना आम बात हैं। यहाँ तक कि झील के अंदर देखने पर भी तलहटी मैं भी नरकंकाल पड़े दिखाई दे जाते हैं।
यहाँ पर सबसे पहला नरकंकाल 1942 मैं एक रेंजर H. K. Madhwal द्वारा खोज गया था। तब से अब तक यहाँ पर सैकड़ो नरकंकाल मिल चुके हैं। जिसमे हर उम्र व लिंग के कंकाल शामिल हैं। यहाँ पर National Geographic Team द्वारा भी एक अभियान चलाया गया था जिसमे उन्हें 30 से ज्यादा नरकंकाल मिले थे।
यहाँ पर इतने सारे नरकंकाल आये कैसे इसके बारे मैं तीन अलग अलग कहानिया प्रचलित हैं।
ओलों की एक भयंकर बारिश
1942 में हुए एक रिसर्च से हड्डियों के इस राज पर थोड़ी रोशनी पड़ सकती है। रिसर्च के अनुसार ट्रेकर्स का एक ग्रुप यहां हुई ओलावृष्टि में फंस गया जिसमें सभी की अचानक और दर्दनाक मौत हो गई। हड्डियों के एक्स-रे और अन्य टेस्ट्स में पाया गया कि हड्डियों में दरारें पड़ी हुई थीं जिससे पता चलता है कि कम से कम क्रिकेट की बॉल की साइज़ के बराबर ओले रहे होंगे। वहां कम से कम 35 किमी तक कोई गांव नहीं था और सिर छुपाने की कोई जगह भी नहीं थी। आंकड़ों के आधार पर माना जा सकता है कि यह घटना 850AD के आस पास की रही होगी।
एक दूसरी किवदंती के मुताबिक तिब्बत में 1841 में हुए युद्ध के दौरान सैनिकों का एक समूह इस मुश्किल रास्ते से गुज़र रहा था। लेकिन वो रास्ता भटक गए और खो गए और कभी मिले नहीं। हालांकि यह एक फिल्मी प्लॉट जैसा लगता है पर यहां मिलने वाली हड्डियों के बारे में यह कथा भी खूब प्रचलित है।
नंदा देवी का प्रकोप
अगर स्थानीय लोगों के माने तो उनके अनुसार एक बार एक राजा जिसका नाम जसधावल था, नंदा देवी की तीर्थ यात्रा पर निकला। उसको संतान की प्राप्ति होने वाली थी इसलिए वो देवी के दर्शन करना चाहता था। स्थानीय पंडितों ने राजा को इतने भव्य समारोह के साथ देवी दर्शन जाने को मना किया। जैसा कि तय था, इस तरह के जोर-शोर और दिखावे वाले समारोह से देवी नाराज़ हो गईं और सबको मौत के घाट उतार दिया। राजा, उसकी रानी और आने वाली संतान को सभी के साथ खत्म कर दिया गया। मिले अवशेषों में कुछ चूड़ियां और अन्य गहने मिले जिससे पता चलता है कि समूह में महिलाएं भी मौजूद थीं।
तो अगर आप सुपरनैचुरल और देवी-देवताओं में विश्वास करते हैं तो इस कहानी को मान सकते हैं। अपने साथ किसी स्थानीय व्यक्ति को ले जाइए और रात के समय यह कहानी उनसे सुनिए। आपके रोंगटे ज़रूर खड़े हो जाएंगे।
कुछ ऐसा है सफर रूपकुंड झील तक का
इस मिस्टीरियस लेक जाने के लिए लोहाजंग से रास्ता शुरू होता है जो कि करनप्रयाग से 85 किमी की दूरी पर है। काठगोदाम स्टेशन से लोहाजंग के लिए आप टैक्सी ले सकते हैं। रिशिकेश से आ रहे हैं तो वहां से करनप्रयाग तक बस ले सकते हैं। करनप्रयाग से 4-5 घंटे में आप लोहाजंग पहुंच जाएंगे।
रुपकुंड झील की तरफ लॉर्ड कर्ज़न ट्रेल को पकड़िए। नीलगंगा नदी के पुराने पुल को पार करके करीब 3 घंटे तक जंगली पेड़ों के बीच ट्रेकिंग करनी होगी। आप जल्द ही एक वाटरफॉल के पास आ जाएंगे। आगे चलते जाएंगे तो राउन बगाद पहुंचकर डिडिना की चढ़ाई करनी होगी। पास के गांव को फॉलो करते रहिए और 2 घंटे में आप एक आसान जगह पहुंच जाएंगे जहां आप आराम कर सकते हैं।
अब आपकी अगली यात्रा डिडना से बेदनी बुग्याल की होगी। अली की तरफ से जाने वाला रास्ता छोटा पर थोड़ा खड़ी चढ़ाई वाला है। यहां से बुग्याल पहुंचने में आपको 3 घंटे करीब लगेंगे। एक दूसरा रास्ता टोपलानी की तरफ से भी जाता है पर वो लंबा है। यहां आप रात गुजार सरते हैं और अगली सुबह स्नो को फॉलो करते हुए चल पड़िए।
जल्दी निकलने से आप भगवाबासा जल्द पहुंच जाएंगे जहां आप थोड़ा आराम कर सकते हैं। लोटानी से कालू विनायक की तरफ 4 घंटे की चढ़ाई के बाद गणेशा मंदिर पहुंच जाएंगे। आपके पास यहां रुकने का विकल्प है। या तो आप भगवाबासा में ठहर जाइए या हूनिया थल पर कैंप लगा लीजिए। यहां रातें काफी ठंड़ी होती हैं।
सुबह 5 बजे आप रुपकुंड झील के अंतिम पड़ाव की ओर निकल पड़िए। बर्फ पिघलने से पहले शुरू हो जाइए। बर्फ काटने के लिए साथ में कुल्हाड़ी लेते जाइए। झील का पहला नज़ारा आपको ज़रूर मंत्रमुग्ध कर देगा। यह एक नीले रंग का बर्फीले शीशे जैसा दिखता है। बर्फ जमी होने पर भी इस पर चलने की गलती मत कीजिएगा। अगर आपको यहां मिलने वाली हड्डियों की कहानियों से डर नहीं लगता है तो यहां आप जब तक चाहें कैंप लगाकर आनंद ले सकते हैं।
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